सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाज़ुओं में दम
अगर भरपूर है
चाँद सूरज से था मिलना चाहता
रात के पहरे में पर मजबूर है
छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
पर हवा बैठी जो थक के चूर है
बर्फ की वादी ने पूछा रात से
धूप की पदचाप कितनी दूर है
हो सके तो दिल को पत्थर मान लो
काँच की हर चीज़ चकनाचूर है
वो पसीने से उगाता है फसल
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है
बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है
बेटियाँ देवीभी हैं और बोझ भी ये चलन सबसे बड़ा नासूर है , बहुत बड़ी बात कही है आपने , बहुत बढ़िया दिगम्बर भाई
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन --: दीप दिल से जलाओ तो कोई बात बन
बर्फ की वादी ने पूछा रात से
जवाब देंहटाएंधूप की पदचाप कितनी दूर है
...वाह! लाज़वाब प्रस्तुति...दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें!
वाह!!! बहुत सुंदर !!!!!
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई--
उजाले पर्व की उजली शुभकामनाएं-----
आंगन में सुखों के अनन्त दीपक जगमगाते रहें------
क्या बात है। इस विधा पर आपकी पकङ काबिलेतारीफ है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना।दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंछोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
जवाब देंहटाएंपर हवा बैठी जो थक के चूर है
बर्फ की वादी ने पूछा रात से
धूप की पदचाप कितनी दूर है
और सबसे कमाल का शेर है -बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है
सर एक लिंक यह भी देखिये आपके द्वारा माँ के लिए लिखी गयी कवितायें यहाँ भी लोग पढ़ें
https://www.facebook.com/KavitaMemMam
छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
जवाब देंहटाएंपर हवा बैठी जो थक के चूर है
अच्छा है जो हवा थक गयी है वरना सिडनी के जंगल में लगी आग की तरह आग लगती तो बुझने का नाम न लेती..बहुत सुंदर रचना..आभार !
वाह सर, क्या कहने
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
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