स्वप्न मेरे: गज़ल
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रविवार, 15 मार्च 2020

हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया ...

क़रीब दो महीने हो गएअभी तक देश की मिट्टी का आनंद ले रहा हूँ ... कुछ काम तो कुछ करोना का शोर ... उम्मीद है जल्दी ही मलेशिया लौटना होगा ... ब्लॉग पर लिखना भी शायद तभी नियमित हो सके ... तब तक एक ताज़ा गज़ल  ...

कई क़िस्सों को पीछे छोड़ आया 
सड़क तन्हाई की दौड़ आया 

शहर जिस पर तरक़्क़ी के शजर थे 
तेरी पगडंडियों से जोड़ आया 

किसी की सिसकियों का दर्द ले कर 
गुबाड़े कुछ हँसी के फोड़ आया 

तेरी यादों की गुल्लक तोड़ कर मैं 
सभी रिश्ते पुराने तोड़ आया 

वहाँ थे मोह के किरदार कितने 
दुशाला प्रेम का मैं ओढ़ आया 

भरे थे जेब में आँसू किसी के 
समुन्दर मिल रहा था छोड़ आया 

कभी निकलो तो ले कर अपनी कश्ती 
हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया 
#मद्धम_मद्धम

मंगलवार, 14 मई 2019

पीढ़ी दर पीढ़ी से संभला एक ज़माना रक्खा है ...

जितनी बार भी देश आता हूँ, पुराने घर की गलियों से गुज़रता हूँ, अजीब सा एहसास होता है जो व्यक्त नहीं हो पाता, हाँ कई बार कागज़ पे जरूर उतर आता है ... अब ऐसा भी नहीं है की यहाँ होता हूँ तो वहां की याद नहीं आती ... अभी भारत में हूँ तो ... अब झेलिये इसको भी ...
   
कुल्लेदार पठानी पगड़ी, एक पजामा रक्खा है
छड़ी टीक की, गांधी चश्मा, कोट पुराना रक्खा है

कुछ बचपन की यादें, कंचे, लट्टू, चूड़ी के टुकड़े
परछत्ती के मर्तबान में ढेर खजाना रक्खा है

टूटे घुटने, चलना मुश्किल, पर वादा है लौटूंगा
मेरी आँखों में देखो तुम स्वप्न सुहाना रक्खा है

जाने किस पल छूट गई थी या मैंने ही छोड़ी थी
बुग्नी जिसमें पाई, पाई, आना, आना रक्खा है

मुद्दत से मैं गया नहीं हूँ उस आँगन की चौखट पर
लस्सी का जग, तवे पे अब तक, एक पराँठा रक्खा है

नींद यकीनन आ जाएगी सर के नीचे रक्खो तो
माँ की खुशबू में लिपटा जो एक सिराना रक्खा है

अक्स मेरा भी दिख जाएगा उस दीवार की फोटो में
गहरी सी आँखों में जिसके एक फ़साना रक्खा है

मिल जाएगी पुश्तैनी घर में मिल कर जो ढूंढेंगे 
पीढ़ी दर पीढ़ी से संभला एक ज़माना रक्खा है 

सोमवार, 25 जुलाई 2016

कह के जो कभी बात को झुठलाएँगे नहीं ...

टूटेंगे मगर फिर भी वो पछताएँगे नहीं
कह के जो कभी बात को झुठलाएँगे नहीं

रिश्तों का यही सच है इसे गाँठ बाँध लो
जो प्रेम से सींचोगे तो मुरझाएँगे नहीं

मुद्दत से धड़कता था ये दिल उन के वास्ते
उम्मीद यही है के वो ठुकराएँगे नहीं

उनके ही हो ये बात कभी दिल से बोल दो
दो नैन कभी आपसे शरमाएँगे नहीं

भाषा जो कभी प्रेम की तुम पढ़ सको पढ़ो
खुद से तो कभी प्रेम वो जतलाएँगे नहीं

जो दर्द का व्योपार ज़माने से कर रहे
ज़ख्मों को कभी आपके सहलाएँगे नहीं


सोमवार, 27 जनवरी 2014

मेरा हर लफ्ज़ मेरे नाम की तस्वीर हो जाए ...

इकट्ठा हो गए हैं लोग तो तक़रीर हो जाए
करो इतनी मेहरबानी जुबां शमशीर हो जाए

जो दिल की आग है इतना जले की रौशनी बनके
मेरा चेहरा मेरे ज़ज़्बात की तहरीर हो जाए

सभी के हाथ में होती है किस्मत की भी इक रेखा
जो किस्मत में नहीं क्यों चाहते जागीर हो जाए

इनायत हो तेरी मुझको सिफत इतनी अता कर दे
लिखूँ जो हूबहू वैसी मेरी तकदीर हो जाए

कहाँ बनते हैं राँझा आज के इस दौर में आशिक
मगर सब चाहते माशूक उनकी हीर हो जाए

गज़ल कहता हूँ पर मेरे खुदा इतनी इनायत कर
मेरा हर लफ्ज़ मेरे नाम की तस्वीर हो जाए

सोमवार, 6 जनवरी 2014

सिर किसी की आँख फोड़ कर गया ...

राह में चिराग छोड़ कर गया
जो हवा के रुख को मोड़ कर गया

क्योंकि तय है आज रात का मिलन
जुगनुओं के पँख तोड़ कर गया

बेलगाम भीड़ का वो अंग था
सिर किसी की आँख फोड़ कर गया

जुड़ नहीं सका किसी की प्रीत में
दिल से दर्द जो निचोड़ कर गया

गुनगुना रहें हैं उसके गीत सब
जो ज़मीं से साथ जोड़ कर गया

मखमली लिबास में वो तंग था
सूत का कफ़न जो ओढ़ कर गया 

सोमवार, 18 नवंबर 2013

आ गया जो धर्म धड़े हो गए ...

ज़ुल्म के खिलाफ खड़े हो गए
नौनिहाल आज बड़े हो गए

थे जो सादगी के कभी देवता
बुत उन्ही के रत्न जड़े हो गए

ये चुनाव खत्म हुए थे अभी
लीडरों के नाक चड़े हो गए

आदमी के दर्द, खुशी एक से
आ गया जो धर्म, धड़े हो गए

लूटमार कर के कहा बस हुआ
आज से नियम ये कड़े हो गए

इश्क प्यार दर्द खुदा कुछ नहीं
बंदगी में यार, छड़े हो गए


सोमवार, 11 नवंबर 2013

कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में ...

किसी को हद से ज़्यादा प्यार न करना ज़माने में
गुज़र जाती है पूरी उम्र ज़ालिम को भुलाने में

कभी बच्चों के सपने के लिए बरबाद मत करना
कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में

करो बस फ़र्ज़ पूरा हक न बच्चों से कभी माँगो
जो हक माँगा लगेंगे दो मिनट कुछ भी सुनाने में

जो इज्ज़त दे रहे बच्चे तो उनका मान भी रक्खो
समझ लो है बड़प्पन ये समझदारी निभाने में

नहीं मिलती बिना मेहनत किसी को कामयाबी फिर
कंजूसी मत करो अपना पसीना तुम बहाने में

कभी टूटे हुए पँखों से मिलना तो उन्हें कहना
लड़ो खुद से, मज़ा मिलता है खुद को आजमाने में

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

बाजुओं में दम अगर भरपूर है

सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाजुओं में दम अगर भरपूर है

चाँद सूरज से था मिलना चाहता
रात के पहरे में पर मजबूर है

छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
पर हवा बैठी जो थक के चूर है

बर्फ की वादी ने पूछा रात से
धूप की पदचाप कितनी दूर है

हो सके तो दिल को पत्थर मान लो
कांच की हर चीज़ चकनाचूर है

वो पसीने से उगाता है फसल
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है

बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है 

सोमवार, 4 नवंबर 2013

बाज़ुओं में दम अगर भरपूर है

सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाज़ुओं में दम अगर भरपूर है

चाँद सूरज से था मिलना चाहता 
रात के पहरे में पर मजबूर है

छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ 
पर हवा बैठी जो थक के चूर है

बर्फ की वादी ने पूछा रात से 
धूप की पदचाप कितनी दूर है

हो सके तो दिल को पत्थर मान लो 
काँच की हर चीज़ चकनाचूर है

वो पसीने से उगाता है फसल 
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है

बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी 
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

झूठ चादर से ढक नहीं पाते ...

वो जो पत्थर चमक नहीं पाते 
बीच बाज़ार बिक नहीं पाते 

टूट जाते हैं वो शजर अक्सर 
आँधियों में जो झुक नहीं पाते   

फाइलों में दबा दिया उनको 
कितने मज़लूम हक नहीं पाते   

रात जितनी घनी हो ये तारे 
धूप के आगे टिक नहीं पाते  

सिलसिला कायनात का ऐसा 
रात हो दिन ये रुक नहीं पाते 

पांव उनके निकल ही आते हैं 
झूठ चादर से ढक नहीं पाते  

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

परों के साथ बैसाखी लगा दी ...

समय ने याद की गुठली गिरा दी 
लो फिर से ख्वाब की झाड़ी उगा दी 

उड़ानों से परिंदे डर गए जो 
परों के साथ बैसाखी लगा दी 

किनारे की तरफ रुख मोड़ के फिर 
हवा के हाथ ये कश्ती थमा दी 

दिया तिनका मगर इक छेद कर के 
कहा हमने वफादारी निभा दी 

कहां हैं मानते इसको परिंदे 
जो दो देशों ने ये सीमा बना दी 

बुजुर्गों के दिलों पे रख के पत्थर 
दरों दीवार बच्चों ने उठा दी 

तेरी यादें जुडी थीं साथ जिसके 
लो हमने आज वो तितली उड़ा दी 

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

सुरमई रंगों से अपनी दास्तां लिक्खी हुई ...

मुद्दतों से कैद हैं कुछ पर्चियां लिक्खी हुई 
पूछना ना कौन से पल में कहां लिक्खी हुई    

बंदिशें हैं तितलियों के खिलखिलाने पे यहाँ 
इस हवेली की बुलंदी पे खिज़ां लिक्खी हुई 

पोटली में माँ हमेंशा ढूंढती रहती है कुछ 
कतरनें हैं कुछ पुरानी खत नुमा लिक्खी हुई 

आईने में है हुनर वो देख लेगा दूर से  
उम्र की ताज़ा लकीरों में फ़ना लिक्खी हुई 
 
पढ़ रही है आसमानी हर्फ़ में बादे सबा 
इश्क की कोई इबारत दरमयां लिक्खी हुई 

इस शहर के पत्थरों को देखना मिल जाएगी     
सुरमई रंगों से अपनी दास्तां लिक्खी हुई 

सोमवार, 16 सितंबर 2013

समझती है अभी भी पांचवीं में पढ़ रहा हूं मैं ...

बुढापे में भी बच्चा हूं मुझे ऐसे निहारेगी 
कभी लल्ला, कभी राजा मुझे अम्मा पुकारेगी 

मेरी माँ पे असर होता नहीं है बात का कोई 
में घर लौटूं नज़र हर हाल में मेरी उतारेगी 

समझती है अभी भी पांचवीं में पढ़ रहा हूं मैं 
नहा करके जो निकलूँ बाल वो मेरे संवारेगी 
 
कभी परदेस से लौटूं नहीं घर देर हो जाए 
परेशानी में अम्मा रात आँखों में गुजारेगी 

जहां तुलसी लगाई पेड़ पीपल का लगाया था 
अभी भी अपने हाथों से उस आँगन को बुहारेगी 

उदासी का सबब खामोश रह के जान लेगी फिर    
छुपा के अपने आँचल में वो होले से दुलारेगी 


मंगलवार, 20 अगस्त 2013

हादसे जो राह में मिलते रहे ...

फूल बन के उम्र भर खिलते रहे 
माँ की छाया में जो हम पलते रहे 

बुझ गई जो रौशनी घर की कभी   
हौंसले माँ के सदा जलते रहे 

यूं ही सीखोगे हुनर चलने का तुम 
बचपने में पांव जो छिलते रहे 

साथ में चलती रही माँ की दुआ 
काफिले उम्मीद के चलते रहे 

हर कदम हर मोड़ पे माँ साथ थी 
उन्नती के रास्ते खुलते रहे  

माँ बदल देती है खुशियों में उन्हें 
हादसे जो राह में मिलते रहे  

बुधवार, 3 जुलाई 2013

यादों की खिड़की जब अम्मा खोलती थी ...

अपने मन की बातें तब तब बोलती थी    
यादों की खिड़की जब अम्मा खोलती थी 

गीत पुरानी फिल्मों के जब गाती थी 
अल्हड बचपन में खुद को ले जाती थी 
कानों में जैसे शक्कर सा घोलती थी   
यादों की खिड़की ... 

मुश्किल न हो घर में उसके रहने से  
ठेस न लग जाए उसके कुछ कहने से  
कहने से पहले बातों को तोलती थी  
यादों की खिड़की ... 

नब्बे के दद्दा थे, बापू सत्तर के  
लग जाती थी चोट, फर्श थे पत्थर के     
साठ की अम्मा पर घूंघट में डोलती थी   
यादों की खिड़की ... 

बुधवार, 26 जून 2013

माँ - एक एहसास ...

उदासी जब कभी बाहों में मुझको घेरती है 
तू बन के राग खुशियों के सुरों को छेड़ती है 

तेरे एहसास को महसूस करता हूं हमेशा 
हवा बालों में मेरे उंगलियां जब फेरती है 

चहल कदमी सी होती है यकायक नींद में फिर 
निकल के तू मुझे तस्वीर से जब देखती है   

तू यादों में चली आती है जब बूढी पड़ोसन 
कभी सर्दी में फिर काढा बना के भेजती है 

“खड़ी है धूप छत पे कब तलक सोता रहेगा” 
ये बातें बोल के अब धूप मुझसे खेलती है   

तेरे हाथों की खुशबू की महक आती है अम्मा    
बड़ी बेटी जो फिर मक्की की रोटी बेलती है 

नहीं देखा खुदा को पर तुझे देखा है मैंने 
मेरी हर सांस इन क़दमों पे माथा टेकती है  

मंगलवार, 18 जून 2013

नाता ...

अब्बू के तो पाँव है छूता, माँ से लाड लड़ाता है 
अपने-पन का ये कैसा फिर माँ बेटे का नाता है 

डरता है या कर ना पाता, अब्बू से मन की बातें 
आगे पीछे माँ से पर वो सारे किस्से गाता है 

हाथ नहीं हो अब्बू का जैसे इंसान बनाने में 
सबके आगे बस वो अपनी माँ का राग सुनाता है 

मुश्किल हो या दुख जितना अब्बू से बाँट नहीं पाता 
बिन बोले माँ के सीने लग के हल्का हो जाता है 

उम्र के साथ वो अब्बू जितना हो जाता है पर फिर भी   
माँ के आगे अपने को फिर भी बच्चा ही पाता है   

ऐसी तो है बात नहीं की अब्बू से है प्यार नहीं    
माँ के आगे पर बेटे को कोई नहीं फिर भाता है 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

वो सूरज से बगावत कर रहा है ...

कविता के दौर से निकल कर पेश है एक गज़ल ... आशा है आपको पसंद आएगी ...

अंधेरों की हिफाज़त कर रहा है
वो सूरज से बगावत कर रहा है

अभी देखा हैं मैंने इक शिकारी
परिंदों से शराफत कर रहा है

खड़ा है आँधियों में टिमटिमाता
कोई दीपक हिमाकत कर रहा है

गली के मोड पर रखता है मटके
वो कुछ ऐसे इबादत कर रहा है

वो कहता है किताबों में सजा कर
के तितली पर इनायत कर रहा है

अभी सीखा नहीं बंदे ने उड़ना
परिंदों की शिकायत कर रहा है

बुजुर्गों को सरों पे है बिठाता
शुरू से वो ज़ियारत कर रहा है