स्वप्न मेरे: एहसास
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बुधवार, 7 सितंबर 2022

रेशमी एहसास ...

हरे पहाड़ों की चोटियों से
उतरते सफ़ेद बादल
रुक जाते हैं बल खाती काली सड़क के सीने पर
 
ललक है तुम्हें छूने की
इतना करीब से
की समेट सकें तेरी साँसों की महक उम्र भर के लिए
 
वो जानते हैं झाँकोगी तुम खुली खिड़की से  
छुओगी नर्म हथेली से वो रेशमी एहसास ...  
ठीक उसी वक़्त मैं भी हो जाऊँगा धुँवा-धुँवा  
घुल जाऊँगा बादलों की नर्म छुवन में
 
सुन प्रकृति की अप्रतिम रचना ... मेरे जंगली गुलाब  
छू के देखना अपने माथे की चन्द लकीरों उस पल   
नमी की बूँद में महसूस करोगी मुझको    

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

कुछ एहसास ...

कुनमुनी धूप का एहसास
जब अनायास ही बदलने लगे मौसम
समझ लेना दूर कहीं यादों में
स्पर्श किया है मैंने तुम्हारा


माथे पे गिरी एक आवारा बूँद
जगाने लगे एक अनजानी प्यास
समझ लेना तन्हाई के किसी लम्हे ने
अंगड़ाई ली है कहीं


हर मौसम में खिलता जंगली गुलाब
तेरे होंटों की मुस्कुराहट लिए
महक रहा है पुरानी पगडण्डी पर
चल आज वहीं टहल आएँ …
जोड़ लें कुछ ताज़ा लम्हे, यादों की बुगनी में …

#जंगली_गुलाब

बुधवार, 8 जून 2022

एहसास ...

जब तक नहीं पड़ती धूल आँखों में
एहसास नहीं होता  
आती-जाती साँसों का एहसास भी तब तक नहीं 
रुकने न लगे हवा जब तक
 
वैसे रात का एहसास भी रौशनी के जाने से नहीं
अंधेरे के आने से होता है
 
मैं जानता हूँ नहीं जुडी ऐसी कोई भी वजह तेरे एहसास के साथ
सिवाए इसके की मैं तुझे प्रेम करने के लिए पैदा हुआ हूँ
मेरे जंगली गुलाब तेरे होने का एहसास मेरी साँसों तक तो है न ...  

#जंगली_गुलाब

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

माँ ...


सच कहूं तो हर साल २५ सितम्बर को ही ज़हन में तेरे न होने का ख्याल आता है, अन्यथा बाकी दिन यूँ लगता है जैसे तू साथ है ... बोलती, उठती, सोती, डांटती, बात करती, प्यार करती ... और मुझे ही क्यों ... शायद सबके साथ ऐसा होता होगा ... माँ का एहसास जो है ... पिछले छह सालों में जाने कितनी बार कितनी ही बातों, किस्सों और लम्हों में तुझे याद किया, तुझे महसूस किया ... ऐसा ही एक एहसास जिसको जिया है सबने ...

मेज़ पर सारी किताबों को सजा देती थी माँ
चार बजते ही सुबह पढने उठा देती थी माँ  

वक़्त पे खाना, समय पे नींद, पढना खेलना
पेपरों के दिन तो कर्फ्यू सा लगा देती थी माँ

दूध घी पर सबसे पहले नाम होता था मेरा
रोज़ सरसों तेल की मालिश करा देती थी माँ

शोर थोड़ा सा भी वो बर्दाश करती थी नहीं  
घर में अनुशासन सभी को फिर सिखा देती थी माँ  

आज भी है याद वो गुज़रा हुआ बचपन मेरा
पाठ हर लम्हे में फिर मुझको पढ़ा देती थी माँ

खुद पे कम, मेहनत पे माँ की था भरोसा पर मुझे 
रोज आँखों में नए सपने जगा देती थी माँ

सोमवार, 6 अगस्त 2018

एहसास ... जिन्दा होने का ...


एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की बातें, जब की खुद का होना भी बे-मानी हो जाता है कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र जाती है खुद को चूंटी काटते काटते ... जिन्दा हूँ तो उसका एहसास क्यों नहीं ... 


उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ 
कि हो सके एहसास खुद के होने का

हालांकि करता हूँ रफू जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है 
कि रोज टपक जाता है ज़िंदगी से 

उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम    
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना उम्र भर  

सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की 

और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

राम से ज्यादा लखन के नाम ये बनवास है ...


जिनके जीवन में हमेशा प्रेम है, उल्लास है
दर्द जितना भी मिले टिकता नहीं फिर पास है  

दूसरों के घाव सिलने से नहीं फुर्सत जिन्हें
अपने उधड़े ज़ख्म का उनको कहाँ आभास है

होठ चुप हैं पर नज़र को देख कर लगता है यूँ
दिल धड़कता है मेरा शायद उन्हें एहसास है

दिन गुज़रते ही जला लेते हैं अपने जिस्म को
जुगनुओं का रात से रिश्ता बहुत ही ख़ास है

आंधियां उस मोड़ से गुज़रीं थी आधी रात को
दीप लेकिन जल रहे होंगे यही विश्वास है

सिरफिरे लोगों का ही अंदाज़ है सबसे जुदा
पी के सागर कह रहे दिल में अभी भी प्यास है 

हों भले ही राम त्रेता युग के नायक, क्या हुआ 
राम से ज़्यादा लखन के नाम ये बनवास है

सोमवार, 12 मार्च 2018

सफ़र जो आसान नहीं ...


बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना  
सुकून देता है उम्मीद के पत्थर से टकराना
या रौशनी का लिबास ओढ़े अंजान टहनी का सहारा 
थाम लेती है जो वक़्त के हाथ 

चुभने के कितने समय बाद तक
वक़्त का महीन तिनका 
घूमता रहता है दर्द का तूफानी दरिया बन कर
पाँव में चुभा छोटा सा लम्हा
शरीर छलनी होने पे ही निकल पाता है

अभी सुख की खुमारी उतरी भी नहीं होती 
आ जाती है दुःख की नई लहर
आखरी पाएदान पे जो खड़ी होती है सुख के  

हर आग की जलन एक सी 
किसी ठहरे हुवे सवाल की तरह
लम्हों की राख रह जाती है जगह जगह इतिहास समेटे
हाथ लगते ही ख्वाब टूट जाता है
सवाल खड़ा रहता है

उम्मीद का उजाला
आँखों का काजल बन के नहीं आता
धूप जरूरी है रात के बाद
किसी भी जंगली गुलाब के खिलने को

किसी साए के सहारे भी तो जिंदगी नहीं चलती

सोमवार, 15 जनवरी 2018

समय ...

तपती रेत के टीलों से उठती आग
समुन्दर का गहरा नीला पानी
सांप सी बलखाती “शेख जायद रोड़”
कंक्रीट का इठलाता जंगल

सभी तो रोज नज़र आते थे रुके हुवे  
मेरे इतने करीब की मुझे लगा  
शायद वक़्त ठहरा हुवा है मेरे साथ   

ओर याद है वो “रिस्ट-वाच” 
“बुर्ज खलीफा” की बुलंदी पे तुमने उपहार में दी थी
कलाई में बंधने के बाजजूद
कभी बैटरी नहीं डली थी उसमें मैंने  
वक्त की सूइयां
रोक के रखना चाहता था मैं उन दिनों 

गाड़ियों की तेज रफ़्तार
सुबह से दोपहर शाम फिर रात का सिलसिला
हवा के रथ पे सवार आसमान की ओर जाते पंछी
कभी अच्छा नहीं लगा ये सब मुझे ...
वक्त के गुजरने का एहसास जो कराते थे

जबकि मैं लम्हों को सदियों में बदलना चाहता था
वक़्त को रोक देना चाहता था
तुम्हारे ओर मेरे बीच एक-टक
स्तब्ध, ग्रुत्वकर्षण मुक्त 
टिक टिक से परे, धडकन से इतर
एक लम्हा बुनना चाहता था

लम्हों को बाँध के रखने की इस जद्दोजेहद में 
उम्र भी कतरा कतरा पिघल गई 

फिर तुम भी तो साथ छोड़ गयीं थी ... 

शेख जायद रोड - दुबई की एक मशहूर सड़क
बुर्ज खलीफा - अभी तक की दुनिया में सबसे ऊंची इमारत दुबई की

बुधवार, 5 जुलाई 2017

चार दिन ... क्या सच में ...

तुम ये न समझना की ये कोई उलाहना है ... खुद से की हुई बातें दोहरानी पढ़ती हैं कई बार ... खुद के होने का  एहसास भी तो जरूरी है जीने के लिए ... हवा भर लेना ही तो नहीं ज़िंदगी ... किसी का एहसास न घुला हो तो साँसें, साँसें कहाँ ...

कितनी बार सपनों को हवा दे कर
यूं ही छोड़ दिया तुमने
वक्त की तन्हाई ने उन्हें पनपने नहीं दिया 

दिल से मजबूर मैं
हर बार नए सपने तुम्हारे साथ ही बुनता रहा   
हालांकि जानता था उनका हश्र

सांसों से बेहतर कौन समझेगा दिल की बेबसी
चलने का आमंत्रण नहीं 
खुद का नियंत्रण नहीं
बस चलते रहो ...

चलते रहो पर कब तक

कहते हैं चार दिन का जीवन

जैसे की चार दिन ही हों बस 
उम्र गुज़र जाती है कभी कभी एक दिन जीने में  
ऐसे में चार दिन जीने की मजबूरी
वो भी टूटते सपनों के साथ
नासूर बन जाता है जिनका दंश ...  

रह रह के उठती पीड़ सोने नहीं देती
और सपने देखने की आदत जागने नहीं देती 
उम्र है ... की गुज़रती जाती है इस कशमकश में 

सोमवार, 30 जनवरी 2017

अहम् ...

रिश्तों में कब, क्यों कुछ ऐसे मोड़ आ जाते हैं की अनजाने ही हम अजनबी दीवार खुद ही खड़ी कर देते हैं ... फिर उसके आवरण में अपने अहम्, अपनी खोखली मर्दानगी का प्रदर्शन करते हैं ... आदमी इतना तो अंजान नहीं होता की सत्य जान न सके ...      

क्योंकि लिपटा था तेरे प्यार का कवच मेरी जिंदगी से
इस चिलचिलाती धूप ने जिस्म काला तो किया  
पर धवल मन को छू भी न सकी
समय की धूल आँधियों के साथ आई तो सही
पर निशान बनाने से पहले हवा के साथ फुर्र हो गई

पर जाने कब कौन से लम्हे पे सवार
अहम् की आंच ने
मन के नाज़ुक एहसास को कोयले सा जला दिया
मेरे वजूद को अंतस से मिटा दिया 

और मैं .....

इस आंच में तुम्हारे पिघलते अस्तित्व को
धुँवा धुँवा होते देखने की चाह में सांस लेने लगा
समय की धूल में तेरा वजूद मिट्टी हो जाने की आस में जीने लगा
पर ये हो न सका
और कब इस आंच में जलता हुवा खुद ही लावा उगलने लगा
जान भी न पाया

और अब .... ये चाहता हूँ
की इससे पहले की जिस्म से उठती ये सडांध जीना दूभर कर दे  
रिश्ते की नाज़ुक डोर समय से पहले टूट जाय
उन तमाम लम्हों को काट दूं
दफ़न कर दूं वो सारे पल जो उग आए थे खरपतवार की तरह
हम दोनों के बीच

हाँ .... मैं आज ये भी स्वीकार करना चाहता हूँ 
ऐसे तमाम लम्हों का अन्वेषण और पोषण मैंने ही किया था ....

रविवार, 29 मार्च 2015

अलज़ाइमर ...

क्या ऐसा हो सकता है कभी ... कुछ कदम किसी के साथ चले फिर भूल गए उसे ज़िन्दगी भर के लिए ... कुछ यादें जो उभर आई हों चेहरे पर, गुम हो जाएँ चुपचाप, जैसे आधी रात का सपना ... उम्र के उस मोड़ पर जहाँ बस यादें ही होता हों हमसफ़र, सब कुछ हो जाए "एब-इनिशियो" ... "जैसे कुछ हुआ ही नहीं" ... कभी कभी सोचता हूँ उम्र के इस पढ़ाव पर "अलज़ाइमर" इतना भी बुरा नहीं ...

कहने भर के क्या कोई अजनबी हो जाता है
उछाल मारते यादों के समुंदर
गहरी नमी छोड़ जाते हैं किनारों पर
वक़्त के निशान भी तो दरारें छोड़ जाते हैं चेहरों पर

अफसानों को हसीन मोड़ पे छोड़ना
न चाहते हुए गम से रिश्ता जोड़ना  
आसान तो नहीं हवा के रुख को मोड़ना

और अब जबकि हमारे बीच कुछ भी नहीं
सोचता हूँ कई बार क्या सच में कुछ नहीं हमारे बीच
सांस लेते लम्हे
झोंके की तरह गुज़रा वक़्त
माजी में अटके पल

जिस्म के किसी टुकड़े को काटना कहीं दूर फैंक आना
क्या सच में मुमकिन है ऐसा हो पाना

गुज़रते लम्हों की अपनी गति होती है
दिन महीने साल अपनी गति से गुज़र जाते हैं
पर उम्र का हर नया पढ़ाव
धकेलता है पीछे की ओर

अक्सर जब साँसें उखड़ने लगें
रुक जाना बेहतर होता है

 ये सच है की एक सा हमेशा कुछ नहीं रहता
पर कुछ न होने का ये एहसास शायद ख़त्म भी नहीं होता 

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

रंग ...

इंद्र-धनुष के सात रंगों में रंग नहीं होते ... रंग सूरज की किरणों में भी नहीं होते और आकाश के नीलेपन में तो बिलकुल भी नहीं ... रंग होते हैं देखने वाले की आँख में जो जागते हैं प्रेम के एहसास से ... किसी के साथ से ...

दुनिया रंगीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रंग आँखों में

तन्हा रातों की कुछ उदास यादें
आंसू बन के न उतरें
तो खुद-बी-खुद रंगीन हो जाती है दुनिया

दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब हसीन लम्हों के द्रख्त
जड़ बनाने लगते हैं दिल की कोरी जमीन पर
क्योंकि उसके साए में उगे रंगीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर

सच पूछो तो दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब तेरे एहसास के कुछ कतरों के साथ
फूल फूल डोलती हैं तितलियाँ
और उनके पीछे भागते हैं कुछ मासूम बच्चे
रंग-बिरँगे कपड़ों में

पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी और आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी रोज़ मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रंगीन होती हैं

दुनिया इसलिए भी रंगीन होती है
की टांकती हो तुम जूड़े में जंगली गुलाब

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

यादें ...

कभी ख़त्म नहीं होता सिलसिला ... समझ से परे है कि जी रहा हूँ यादों में या यादें हैं तो जी रहा हूँ ... कोई एहसास, कोई नशा ... कुछ तो है जो रहता है मुसलसल तेरी यादों के साथ ... जब कभी जिंदगी की पगडण्डी पे यादों के कुछ लम्हे अंकुरित होने लगते हैं, उसी पल महकने लगती है वही पुरानी खुशबू मेरे जेहन में ...

टूटते तारों को देखना
जैसे प्रेमिका की मांग में पड़े सिन्दूर का याद आना

जंगली गुलाब की खुशबू लिए
आँखों से बहते खून के कतरे
बेवजह तो नहीं

---

खामोशी तोड़ने की जिद्द
कानों का अपने आप बजना

मैं जानता हूँ वो हंसी की खनक नहीं
वो तेरी सिसकी भी नहीं
एक सरगोशी है तेरे एहसास की
गुज़र जाती है जो जंगली गुलाब की खुशबू लिए

---

सन्नाटा इतना की सांस लेना भी गुनाह
ऐसे में बेसाख्ता पत्तों की सरसराहट
यकीनन बहुत करीब से गुज़रा है कोई लम्हा
जंगली गुलाब की खुशबू लिए

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

अंतराल ...

आज, बीता हुआ कल और आने वाला कल, कितना कुछ बह जाता है समय के इस अंतराल में और कितना कुछ जुड़ जाता है मन के किसी एकाकी कोने में. उम्र कि पगडंडी पर कुछ लम्हे जुगनू से चमकते हैं ... यादों के झिलमिलाते झुरमुट रोकते हैं रास्ता अतीत से वर्तमान का ... ज़िंदगी में तुम हो, प्रेम हो, कुछ यादें हों ... क्या इतना ही काफी नहीं ...

तुम थीं, वर्तमान था
उठते हुए शोर के बीच
खनक रही थी तुम्हारी आवाज़
जो बदल रही थी धीरे धीरे
दूर होती आँखों कि मौन भाषा में
(उस पल तुम मुझसे दूर हो रहीं थीं ...)

फिर एक लंबी परवाज़
और लुप्त हो गया तुम्हारा वर्तमान चेहरा
लौट गया मन अतीत के गलियारे में
गुज़रे हुए लम्हों के बीच

बस तभी से तुम्हारा वर्तमान नज़र नहीं आ रहा

नज़र आ रहा है तो बस
पूजा कि थाली उठाये, पलकें झुकाए
गुलाबी साड़ी में लिपटा, सादगी भरा तुम्हारा रूप

सुनो, जब तुम आना, तो धीरे से आना
अतीत से वर्तमान के बीच
तुम्हें पहचानना भी तो है ...  

        

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

निर्धारित शब्द ...

अनगिनत शब्द जो आँखों से बोले जाते हैं, तैरते रहते हैं कायनात में ... अर्जुन की कमान से निकले तीर की तरह, तलाश रहती है इन लक्ष्य-प्रेरित शब्दों को निर्धारित चिड़िया की आँख की ... बदलते मौसम के बीच मेरे शब्द भी तो बेताब हैं तुझसे मिलने को ...

ठंडी हवा से गर्म लू के थपेडों तक
खुली रहती है मेरी खिड़की
कि बिखरे हुए सफ़ेद कोहरे के ताने बाने में
तो कभी उडती रेत के बदलते कैनवस पे
समुन्दर कि इठलाती लहरों में
तो कभी रात के गहरे आँचल में चमकते सितारों में
दिखाई दे वो चेहरा कभी
जिसके गुलाबी होठ के ठीक ऊपर
मुस्कुराता रहता है काला तिल

कोई समझे न समझे
जब मिलोगी इन शब्दों से तो समझ जाओगी

मैं अब भी खड़ा हूँ खुली खिडके के मुहाने
आँखों से बुनते अनगिनत शब्द ...

सोमवार, 24 मार्च 2014

जानना प्रेम को ...

प्रेम का क्या कोई स्वरुप है? कोई शरीर जिसे महसूस किया जा सके, छुआ जा सके ... या वो एक सम्मोहन है ... गहरी  नींद में जाने से ठीक पहले कि एक अवस्था, जहाँ सोते हुवे भी जागृत होता है मन ... क्या सच में प्रेम है, या है एक माया कृष्ण की जहाँ बस गोपियाँ ही गोपियाँ हैं, चिर-आनंद की अवस्था है ... फिर मैं ... मैं क्या हूँ ... तुम्हारी माया में बंधा कृष्ण, या कृष्ण सम्मोहन में बंधी राधा ... पर जब प्रेम है, कृष्ण है, राधा है, गोपियाँ हैं, मैं हूँ, तू है ... तो क्या जरूरी है जानना प्रेम को ...


कई बार करता हूँ कोशिश
कैनवस के बे-रँग परदे पे तुझे नए शेड में उतारने की

चेतन मन बैठा देता है तुझे पास की ही मुंडेर पर
कायनात के चटख रँग लपेटे

शुरू होती है फिर एक जद्दोजहद चेतन और अवचेतन के बीच
गुजरते समय के साथ उतरने लगते हैं समय के रँग

शून्य होने लगता है तेरा अक्स
खुद-ब-खुद घुल जाते हैं रँग
उतर आती है तू साँस लेती कैनवस के बे-रँग परदे पर
गुलाबी साड़ी पे आसमानी शाल ओढ़े
पूजा कि थाली हाथों में लिए
पलकें झुकाए सादगी भरे रूप में

सच बताना जानाँ
क्या रुका हुआ है समय तभी से
या आई है तू सच में मेरे सामने इस रूप में ...?       

मंगलवार, 18 मार्च 2014

दास्ताँ ...

प्रेम राधा ने किया, कृष्ण ने भी ... मीरा ने भी, हीर और लैला ने भी ... पात्र बदलते रहे समय के साथ प्रेम नहीं ... वो तो रह गया अंतरिक्ष में ... इस ब्रह्मांड में किसी न किसी रूप में ... भाग्यवान होते हैं वो पात्र जिनका चयन करता है प्रेम, पुनः अवतरित होने के लिए ... तुम भी तो एक ऐसी ही रचना थीं सृष्टि की ...


वो सर्दियों की शाम थी
सफ़ेद बादलों के पीछे छुपा सूरज
बेताब था कुछ सुनने को

गहरी लंबी खामोशी के बाद
मेरा हाथ अपने हाथों में थामे तुमने कहा

आई लव यु

उसके बाद भी मुंदी पलकों के बीच
बहुत देर तक हिलते रहे तुम्हारे होंठ
पर खत्म हो गए थे सब संवाद उस पल के बाद
थम गयीं थी सरगोशियाँ कायनात की

मत पूछना मुझसे
उस धुंधली सी शाम कि दास्ताँ

कुछ मंज़र आसान नहीं होते उतारना
थोड़ी पड़ जाती हैं सोलह कलाएँ
गुम जाते हैं सारे शब्द कायनात के



सोमवार, 10 मार्च 2014

पूरी होती एक दुआ ...

कुछ बातों को ज़हन में आने से रोकना मुमकिन नहीं होता ... कुछ पल हमेशा तैरते रहते हैं यादों के गलियारे में ... कुछ एहसास भी मुद्दतों ताज़ा रहते हैं ... ज़िंदगी गिने-चुने लम्हों के सहारे भी बिताई जा सकती है बशर्ते उन लम्हों में तुम हो और हो पूरी होती एक दुआ ...

चाहता हूँ तुम बनो शहजादी
कि सोना चाहता हूँ तुम्हारी बाहों को सिरहाना बना कर
पूरब की खिड़की पे डाल देना अँधेरे का पर्दा
रोक लेना ये चाँद ज़िंदगी के फिसल जाने तक
कि लेना चाहता हूँ इक लंबी नींद
तुमसे लिपट कर

आसमान से गिरते हर तारे के साथ
रख देता हूँ एक दुआ
कि देखता होगा मेरी दुआओं का "खाता" कोई
कुछ तो होगा निज़ाम इस दुनिया को बनाने वाले का
माँ अक्सर कहा करती थी किस्मत वाला हूँ मैं

मीलों फैला रेत का पीला समुन्दर
इसलिए भी मुझे अच्छा लगने लगा है
कि बना सकता हूँ तेरे अनगिनत मिट्टी के पुतले
कि डालना चाहता हूँ उनमें जान
कि मांगी हैं लाखों दुआएं उस खुदा से
कुछ पल को कायनात का निज़ाम पाने की

  

सोमवार, 3 मार्च 2014

एक बात ... ज़रूरी है जो ...

पचपन डिग्री पारे में रेत के रेगिस्तान पे चलते हुए अगर मरीचिका न मिले तो क्या चलना आसान होगा ... तुम भी न हो और हो सपने देखने पे पाबंदी ... ऐसे तो नहीं चलती साँसें ... जरूरी होता है एक हल्का सा झटका कभी कभी, रुकी हुई सूइयाँ चलाने के लिए ...


वो मेरे इंतज़ार का दरख़्त था
सर्दियों में भी फूल नहीं खिले उस पर
हालाँकि उसकी घनी छाँव में पनपने वाली झाड़ी
लदी रहती थी लाल फूलों से

सुनो सफ़ेद पँखों वाली चिड़िया
बसंत से पहले  
उनकी चिट्ठी जरूर लाना

आने वाले पतझड़ के मौसम में
जरूरी है पलाश का खिलना  

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

कुछ एहसास ...

खुद से बातें करते हुए कई बार सोचा प्रेम क्या है ... अंजान पगडंडी पे हाथों में हाथ डाले यूँ ही चलते रहना ... या किसी खूबसूरत बे-शक्ल के साथ कल्पना की लंबी उड़ान पे सात समुंदर पार निकल जाना ... किसी शांत नदी के मुहाने कस के इक दूजे का हाथ थामे सूरज को धीरे धीरे पानी में पिघलते देखना ... या बिना कुछ कहे इक दूजे के हर दर्द को हँसते हुए पी लेना ... बिना आवाज़ कभी उस जगह पे खड़े मिलना जहाँ शिद्दत से किसी के साथ की ज़रूरत हो ... कुछ ऐसे ही तो था अपना रिश्ता जहाँ ये समझने की चाहत नहीं थी की प्रेम क्या है ...

लिख तो लेता कितने ही ग्रन्थ
जो महसूस कर पाता कुछ दिन का तेरा जाना

कह देता कविता हर रोज़ तुझ पर
जो सोच पाता खुद को तेरे से अलग

शब्द उग आते अपने आप
जो गूंजती न होती तेरी जादुई आवाज़
मेरे एहसास के इर्द-गिर्द

तुम पूछती हो हर बार
क्यों नहीं लिखी कविता मेरे पे, बस मेरे पे

चलो आज लिख देता हूँ वो कविता
बंद करके अपनी आखें, देखो मन की आँखों से मेरी ओर
और पढ़ लो ज़िंदगी की सजीव कविता
तुम्हारी और मेरी सम्पूर्ण कविता

सुनो ...
अब न कहना तुम पे कविता नहीं लिखता