बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना
सुकून देता है उम्मीद के पत्थर से टकराना
या रौशनी का लिबास ओढ़े अंजान टहनी का सहारा
थाम लेती है जो वक़्त के हाथ
चुभने के कितने समय बाद तक
वक़्त का महीन तिनका
घूमता रहता है दर्द का तूफानी दरिया बन कर
पाँव में चुभा छोटा सा लम्हा
शरीर छलनी होने पे ही निकल पाता है
अभी सुख की खुमारी उतरी भी नहीं होती
आ जाती है दुःख की नई लहर
आखरी पाएदान पे जो खड़ी होती है सुख के
हर आग की जलन एक सी
किसी ठहरे हुवे सवाल की तरह
लम्हों की राख रह जाती है जगह जगह इतिहास समेटे
हाथ लगते ही ख्वाब टूट जाता है
सवाल खड़ा रहता है
उम्मीद का उजाला
आँखों का काजल बन के नहीं आता
धूप जरूरी है रात के बाद
किसी भी जंगली गुलाब के खिलने को
किसी साए के सहारे भी तो जिंदगी नहीं चलती