स्वप्न मेरे: अलज़ाइमर ...

रविवार, 29 मार्च 2015

अलज़ाइमर ...

क्या ऐसा हो सकता है कभी ... कुछ कदम किसी के साथ चले फिर भूल गए उसे ज़िन्दगी भर के लिए ... कुछ यादें जो उभर आई हों चेहरे पर, गुम हो जाएँ चुपचाप, जैसे आधी रात का सपना ... उम्र के उस मोड़ पर जहाँ बस यादें ही होता हों हमसफ़र, सब कुछ हो जाए "एब-इनिशियो" ... "जैसे कुछ हुआ ही नहीं" ... कभी कभी सोचता हूँ उम्र के इस पढ़ाव पर "अलज़ाइमर" इतना भी बुरा नहीं ...

कहने भर के क्या कोई अजनबी हो जाता है
उछाल मारते यादों के समुंदर
गहरी नमी छोड़ जाते हैं किनारों पर
वक़्त के निशान भी तो दरारें छोड़ जाते हैं चेहरों पर

अफसानों को हसीन मोड़ पे छोड़ना
न चाहते हुए गम से रिश्ता जोड़ना  
आसान तो नहीं हवा के रुख को मोड़ना

और अब जबकि हमारे बीच कुछ भी नहीं
सोचता हूँ कई बार क्या सच में कुछ नहीं हमारे बीच
सांस लेते लम्हे
झोंके की तरह गुज़रा वक़्त
माजी में अटके पल

जिस्म के किसी टुकड़े को काटना कहीं दूर फैंक आना
क्या सच में मुमकिन है ऐसा हो पाना

गुज़रते लम्हों की अपनी गति होती है
दिन महीने साल अपनी गति से गुज़र जाते हैं
पर उम्र का हर नया पढ़ाव
धकेलता है पीछे की ओर

अक्सर जब साँसें उखड़ने लगें
रुक जाना बेहतर होता है

 ये सच है की एक सा हमेशा कुछ नहीं रहता
पर कुछ न होने का ये एहसास शायद ख़त्म भी नहीं होता 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है