लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.
जाएँगे हम मगर इस क़दर जाएँगे.
रख के सब की ख़बर बे-ख़बर जाएँगे.
धूप चेहरे पे मल-मल के मिलते हो क्यों,
मोम के जिस्म वाले तो डर जाएँगे.
हुस्न की बात का क्या बुरा मानना,
बात कर के भी अक्सर मुक़र जाएँगे.
वक़्त की क़ैद में बर्फ़ सी ज़िंदगी,
क़तरा-क़तरा पिघल कर बिखर जाएँगे.
तितलियों से है गठ-जोड़ अपना सनम,
एक दिन छत पे तेरी उतर जाएँगे.
ज़िंदगी रेलगाड़ी है हम-तुम सभी,
उम्र की पटरियों पर गुज़र जाएँगे.
शब की पुड़िया से चिड़िया शफक़ ले उड़ी,
लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.
वक़्त की क़ैद में बर्फ़ सी ज़िंदगी,
जवाब देंहटाएंक़तरा-क़तरा पिघल कर बिखर जाएँगे.
बहुत बारीकी से जीवन का फ़लसफ़ा बयान करती सुन्दर ग़ज़ल ।
उम्दा ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंवाह! बेहद उम्दा ग़ज़ल, हर शेर अपने आप में ख़ूबसूरती से बहुत कुछ कहता हुआ!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 1फरवरी 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक शेर
लाजवाब गजल,👌👌👏👏
ज़िंदगी रेलगाड़ी है हम-तुम सभी,
उम्र की पटरियों पर गुज़र जाएँगे.
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंBahut khoob
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