स्वप्न मेरे: पार कैसे जाना है, कश्तियाँ समझती हैं ...

रविवार, 12 जनवरी 2025

पार कैसे जाना है, कश्तियाँ समझती हैं ...

खेल तो बहाना है, गोटियाँ समझती हैं.
कौन है निशाने पर, पुतलियाँ समझती हैं.

पल दो पल कहीं जीवन, मौत का कहीं तांडव,
खेल है ये साँसों का, अर्थियाँ समझती हैं.

काफिला है यादों का, या हवा की सरगोशी,
कौन थपथपाता है, खिड़कियाँ समझती हैं.

चूड़ियों की खन-खन में, पायलों की रुन-झुन में,
कौन दिल की धड़कन में, लड़कियाँ समझती हैं.

नौनिहाल आते हैं, पढ़ के जब मदरसे से,
लफ्ज़ किसने सीखा है, तख्तियाँ समझती हैं.

कुछ सफ़ेद पोशों की, गूँजती हैं तकरीरें,
कितने घर जलेंगे अब, बस्तियाँ समझती हैं.

तुम तो इक मुसाफिर हो, फिक्र हो तुम्हें क्यों फिर,
पार कैसे जाना है, कश्तियाँ समझती हैं.
(तरही ग़ज़ल)

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !! हर अश्यार अपने आप में मुक्कमल है, बेहतरीन

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  2. वाह क्या खूब लिखा है। मज़ा आ गया नासवा जी। "दो जवाँ दिलों का ग़म" ... की याद तरो -ताजा हो गयी।

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    1. जी … उसी ग़ज़ल के एक मिसरे पे हुई तरही है ये 🙏

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