स्वप्न मेरे: बारिश
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सोमवार, 19 अगस्त 2019

जाने क्यों आँखें रहती नम नम ...


गीत प्रेम के गाता है हर दम
जाने क्यों आँखें रहती नम नम

नाच मयूरी हो पागल
अम्बर पे छाए बादल
बरसो मेघा रे पल पल
बारिश की बूँदें करतीं छम छम
जाने क्यों आँखें ...

सबके अपने अपने गम
कुछ के ज्यादा कुछ के कम
सह लेता है जिसमें दम
सुन आँसूं पलकों के पीछे थम 
जाने क्यों आँखें ... 

हिस्से में उतना सुख दुःख
जीवन का जैसा है रुख
फिर भी सब कहते हैं सुख 
उनके हिस्से है आया कम कम
जाने क्यों आँखें ...

सोमवार, 5 अगस्त 2019

घास उगी सूखे आँगन ...


धड़ धड़ धड़ बरसा सावन
भीगे, फिसले कितने तन

घास उगी सूखे आँगन
प्यास बुझी ओ बंजर धरती तृप्त हुई
नीरस जीवन से तुलसी भी मुक्त हुई,
झींगुर की गूँजे गुंजन
घास उगी ...

घास उगी वन औ उपवन
गीले सूखे चहल पहल कुछ तेज हुई
हरा बिछौना कोमल तन की सेज हुई
दृश्य है कितना मन-भावन
घास उगी ...

हरियाया है जीवन-धन
कुछ काँटे भी कुछ फूलों के साथ उगे
आते जाते इसके उसके पाँव चुभे
सिहर गया डर से तन मन   
घास उगी ...

सोमवार, 15 जुलाई 2019

मेघ हैं आकाश में कितने घने ...

मेघ हैं आकाश में कितने घने
लौट कर आए हैं घर में सब जने  

चिर प्रतीक्षा बारिशों की हो रही   
बूँद अब तक बादलों में सो रही
हैं हवा में कागजों की कत-रने
मेघ हैं आकाश में ...

कुछ कमी सी है सुबह से धूप में
आसमां पीला हुआ है धूल में  
रेड़ियाँ लौटी घरों को अन-मने
मेघ हैं आकाश में ...

नगर पथ पल भर में सूना हो गया
वायु का आवेग दूना हो गया
रह गए बस पेड़ के सूखे तने
मेघ हैं आकाश में ...

दिन में जैसे रात का आभास है
पहली बारिश का नया एहसास है
मुक्त हो चातक लगे हैं चीखने
मेघ हैं आकाश में ...

चाय भी तैयार है गरमा-गरम
उफ़ जलेबी हाय क्या नरमा-नरम
मिर्च आलू के पकोड़े भी बने
हैं आकाश में ...

सोमवार, 25 मार्च 2019

अरे “शिट” आखरी सिगरेट भी पी ली ...


सुनों छोड़ो चलो अब उठ भी जाएँ
कहीं बारिश से पहले घूम आएँ

यकीनन आज फिर इतवार होगा
उनीन्दा दिन है, बोझिल सी हवाएँ

हवेली तो नहीं पर पेड़ होंगे
चलो जामुन वहाँ से तोड़ लाएँ

नज़र भर हर नज़र देखेगी तुमको
कहीं काला सा इक टीका लगाएँ

पतंगें तो उड़ा आया है बचपन
चलो पिंजरे से अब पंछी उड़ाएँ

कहरवा दादरा की ताल बारिश
चलो इस ताल से हम सुर मिलाएँ

अरे “शिट” आखरी सिगरेट भी पी ली
ये बोझिल रात अब कैसे बिताएँ

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

रो रही हैं आज क्यों फिर पुतलियाँ ...

छत भिगोने आ गईं जो बदलियाँ
शोर क्यों करती हैं इतना बिजलियाँ

आदमी शहरों के ऐसे हो गए
चूस कर छोड़ी हों जैसे गुठलियाँ

फेर में कानून के हम आ गए
अब कराहेंगी हमारी पसलियाँ

हाथ में आते ही सत्ता क्या हुआ
पी गईं सागर को खुद ही मछलियाँ

उँगलियों की चाल, डोरी का चलन
जानती हैं खेल सारा पुतलियाँ

खुल गया टांका पुराने दर्द का 
रो रही हैं आज क्यों फिर पुतलियाँ 

मंगलवार, 31 मई 2016

ये न समझो इसका मतलब सर झुकाना हो गया ...

जब से ये फुटपाथ रहने का ठिकाना हो गया
बारिशों में भीगने का इक बहाना हो गया

ख़त कभी पुर्ज़ा कभी कोने में बतियाते रहे
हमने बोला कान में तो फुसफुसाना हो गया

हम कहेंगे कुछ तो कहने का हुनर आता नहीं
जग सुनाएगा तो कह देंगे फ़साना हो गया

सीख लो अंदाज़ जीने का परिंदों से ज़रा
मिल गया दो वक़्त का तो चहचहाना हो गया

जिंदगी की कशमकश में इस कदर मसरूफ हूँ
खुद से ही बातें किए अब तो ज़माना हो गया

आपकी इज्ज़त के चलते हो गए खामोश हम
ये न समझो इसका मतलब सर झुकाना हो गया  

रविवार, 2 अगस्त 2015

ज़िन्दगी यूँ ही बसर होती रहे ...

ज़िंदगी उनकी नजर होती रहे
खूबसूरत ये डगर होती रहे

सादगी इतनी है तेरे रूप में
बंदगी आठों पहर होती रहे

मैं उठूं तो हो मेरे पहलू में तू
रोज़ ही ऐसी सहर होती रहे

डूबना मंज़ूर है इस शर्त पे
प्यार की बारिश अगर होती रहे

तेज़ तीखी धूप लेता हूँ मगर
छाँव पेड़ों की उधर होती रहे

मुद्दतों के बाद तू है रूबरू
गुफ्तगू ये रात भर होती रहे

माँ का साया हो सदा सर पर मेरे
ज़िन्दगी यूँ ही बसर होती रहे