स्वप्न मेरे: गीत
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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

नव-वर्ष …

हम दिसंबर की इक्कत्तिस रात में अब क्या करें ?
क्या विगत का ग़म के स्वागत मिल के आगत का करें ?
हम दिसंबर की … 


है जो यह नव-वर्ष तम के साथ फिर आता है क्यों ?
बात है आनंद कि तो दुख चले आता है क्यों ?
नींद की टिक-टिक में उतरें पल तो क्या उसका करें ?
हम दिसंबर की …


वेदना का अंत क्या नव-वर्ष से हो पाएगा ?
भूख से छुटकारा क्या मानव को फिर मिल पाएगा ?
व्यर्थ है अवधारणा तो गीत क्यों गाया करें ?
हम दिसंबर की …


चल रहा आदित्य-पृथ्वी-चंद्रमा का दिव्य रथ,
लय सुनिश्चितताल नियमितकाल का पर एक पथ,
फिर बदल के वर्ष यह व्यवधान क्यों पैदा करें ?
हम दिसंबर की …

सोमवार, 18 नवंबर 2019

माँ - यादों की चासनी से ...

आने वाली किताब “कोशिश ... माँ को समेटने की” का एक अन्श ... 

अक्सर जब बेटियाँ बड़ी होती हैं, धीरे धीरे हर अच्छे बुरे को समझने लगती हैं ... गुज़रते समय के साथ जाने अनजाने ही, पिता के लिए वो उसकी माँ का रूप बन कर सामने आ जाती हैं ... 

ऐसे ही कुछ लम्हे, कुछ किस्से रोज़-मर्रा के जीवन में भी आते हैं जो किसी भी अपने की यादों को ताज़ा कर जाते हैं .... कुछ तो निहित है इस प्राकृति में, इस कायनात में ...  


पुराने गीत बेटी जब कभी भी गुनगुनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है

दबा कर होठ वो दाँतों तले जब बात है करती
तेरी आँखें तेरा ही रूप तेरी छाँव है लगती 
मैं तुझसे क्या कहूँ होता है मेरे साथ ये अक्सर
बड़ी बेटी किसी भी बात पर जब डाँट जाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा ...

#कोशिश_माँ_को_समेटने_की 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

रात की काली स्याही ढल गई ...


दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई

सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब 
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े  
हर सवारी आठ तक निकल गई
रात की काली ...

कुछ बुजुर्गों का भी घर में ज़ोर था
साथ कपड़े, बरतनों का शोर था
माँ थी सीधी ये समझ न पाई थी
बाई के नखरे थे, मन में चोर था
काम, इतना काम, रोटी जल गई
रात की काली ...

ढेर सारे काम बाकी रह गए
ख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए 
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...

सब पढ़ाकू थे, में कुछ पीछे रहा
खेल मस्ती में मगर, आगे रहा
सर पे आई तो समझ में आ गया
डोर जो उम्मीद की थामे रहा 
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
रात की काली ...

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

खो कर ही इस जीवन में कुछ पाना है ...


मूल मन्त्र इस श्रृष्टि का ये जाना है
खो कर ही इस जीवन में कुछ पाना है

नव कोंपल उस पल पेड़ों पर आते हैं
पात पुरातन जड़ से जब झड़ जाते हैं    
जैविक घटकों में हैं ऐसे जीवाणू 
मिट कर खुद जो दो बन कर मुस्काते हैं
दंश नहीं मानो, खोना अवसर समझो
यही शाश्वत सत्य चिरंतन माना है
खो कर ही इस जीवन में ...

बचपन जाता है यौवन के उद्गम पर   
पुष्प नष्ट होता है फल के आगम पर  
छूटेंगे रिश्ते, नाते, संघी, साथी
तभी मिलेगा उच्च शिखर अपने दम पर
कुदरत भी बोले-बिन, बोले गहरा सच 
तम का मिट जाना ही सूरज आना है
खो कर ही इस जीवन में ...

कुछ रिश्ते टूटेंगे नए बनेंगे जब  
समय मात्र होगा बन्धन छूटेंगे जब  
खोना-पाना, मोह प्रेम दुःख का दर्पण    
सत्य सामने आएगा सोचेंगे जब 
दुनिया रैन-बसेरा, माया, लीला है
आना जिस पल जग में निश्चित जाना है 
खो कर ही इस जीवन में ...

सोमवार, 30 सितंबर 2019

घर मेरा टूटा हुआ सन्दूक है ...


घर मेरा टूटा हुआ सन्दूक है

हर पुरानी चीज़ से अनुबन्ध है      
पर घड़ी से ख़ास ही सम्बन्ध है
रूई के तकिये, रज़ाई, चादरें    
खेस है जिसमें के माँ की गन्ध है
ताम्बे के बर्तन, कलेंडर, फोटुएँ
जंग लगी छर्रों की इक बन्दूक है
घर मेरा टूटा ...

"शैल्फ" पे  चुप सी कतारों में खड़ी   
अध्-पड़ी कुछ "बुक्स" कोनों से मुड़ी
पत्रिकाएँ और कुछ अख़बार भी
इन दराजों में करीने से जुड़ी  
मेज़ पर है पैन, पुरानी डायरी
गीत उलझे, नज़्म, टूटी हूक है
घर मेरा टूटा ....

ढेर है कपड़ों का मैला इस तरफ
चाय के झूठे हैं "मग" कुछ उस तरफ
फर्श पर है धूल, क्लीनिंग माँगती 
चप्पलों का ढेर रक्खूँ किस तरफ
जो भी है, कडुवा है, मीठा, क्या पता
ज़िन्दगी का सच यही दो-टूक है
घर मेरा टूटा ...

जो भी है जैसा भी है मेरा तो है
घर मेरा तो अब मेरी माशूक है 
घर मेरा टूटा ...

बुधवार, 25 सितंबर 2019

माँ ...


पलट के आज फिर आ गई २५ सितम्बर ... वैस तो तू आस-पास ही होती है पर फिर भी आज के दिन तू विशेष आती है ... माँ जो है मेरी ... पिछले सात सालों में, मैं जरूर कुछ बूढा हुआ पर तू वैसे ही है जैसी छोड़ के गई थी ... कुछ लिखना तो बस बहाना है मिल बैठ के तेरी बातें करने का ... तेरी बातों को याद करने का ...

सारी सारी रात नहीं फिर सोई है
पीट के मुझको खुद भी अम्मा रोई है

गुस्से में भी मुझसे प्यार झलकता था
तेरे जैसी दुनिया में ना कोई है

सपने पूरे कैसे हों ये सिखा दिया
अब किन सपनों में अम्मा तू खोई है

हर मुश्किल लम्हे को हँस के जी लेना
गज़ब सी बूटी मन में तूने बोई है

शक्लो-सूरत, हाड़-मास, तन, हर शक्ति   
धडकन तुझसे, तूने साँस पिरोई है

बचपन से अब तक वो स्वाद नहीं जाता 
चलती फिरती अम्मा एक रसोई है

सोमवार, 9 सितंबर 2019

एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ ...


मैं कई गन्जों को कंघे बेचता हूँ
एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ

काटता हूँ मूछ पर दाड़ी भी रखता 
और माथे के तिलक तो साथ रखता  
नाम अल्ला का भी शंकर का हूँ लेता
है मेरा धंधा तमन्चे बेचता हूँ
एक सौदागर हूँ ...

धर्म का व्यापार मुझसे पल रहा है
दौर अफवाहों का मुझसे चल रहा है  
यूँ नहीं तो शह्र सारा जल रहा है
चौंक पे हर बार झगड़े बेचता हूँ
एक सौदागर हूँ ...

एक ही गोदाम में है माल सारा  
गाड़ियाँ, पत्थर, के झन्डा हो के नारा
हर गली, नुक्कड़ पे सप्लाई मिलेगी    
टोपियों के साथ चमचे बेचता हूँ
एक सौदागर हूँ ...

हर विपक्षी का कहा लिखता रहा हूँ  
जो कहे सरकार मैं जपता रहा हूँ
मैं ही टी.वी., मीडिया, अख़बार नेट मैं
यार हूँ पैसे का ख़बरें बेचता हूँ 
एक सौदागर हूँ ...

सोमवार, 2 सितंबर 2019

पल दो पल फिर आँख कहाँ खुल पाएगी ...


धूल कभी जो आँधी बन के आएगी
पल दो पल फिर आँख कहाँ खुल पाएगी

अक्षत मन तो स्वप्न नए सन्जोयेगा
बीज नई आशा के मन में बोयेगा
खींच लिए जायेंगे जब अवसर साधन
सपनों की मृत्यु उस पल हो जायेगी
पल दो पल फिर ...

बादल बूँदा बाँदी कर उड़ जाएँगे
चिप चिप कपडे जिस्मों से जुड़ जाएँगे
चाट के ठेले जब सीले पड़ जाएँगे
कमसिन सड़कों पर कैसे फिर खाएगी
पल दो पल फिर ...

कितने कीट पतंगे घर में आएँगे
मखमल के कीड़े दर्शन दे जाते जाएँगे
मेंढक की टर-टर झींगुर की रुन-झुन भी   
आँगन में फिर गीत ख़ुशी के गाएगी 
पल दो पल फिर ...

सोमवार, 26 अगस्त 2019

क्या मिला सचमुच शिखर ...


क्या मिला सचमुच शिखर ?

मिल गए ऐश्वर्य कितने अनगिनत
पञ्च-तारा जिंदगी में हो गया विस्मृत विगत
घर गली फिर गाँव फिर छूटा नगर
क्या मिला सचमुच ...

कर्म पथ पर आ नहीं पाई विफलता
मान आदर पदक लाई सब सफलता
मित्र बिछड़े चल न पाए साथ अपने इस डगर
क्या मिला सचमुच ...

एकला चलता रहा शुभ लक्ष्य पाया
चक्र किन्तु नियति ने ऐसा घुमाया
ले गई किस छोर पे जाने उठाकर ये लहर
क्या मिला सचमुच ...

उम्र के इस मोड़ पर ना साथ कोई
सोचता हूँ फसल ये कैसी है बोई
खो गया वो रास्ता, जाता था जो मेरे शहर 
क्या मिला सचमुच ...