उठता तो ज़रूर है एक पत्थर कहीं से
आईना चटखने से पहले
फिर उस रोज़ तुमने भी तो देखा था
अंजान नज़रों से एक टक
दिल की अन-गिनत दरारों से
दर्द टपकता है बे-हिसाब क़तरा – क़तरा ...
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शनिवार, 29 जून 2024
सोमवार, 1 अक्टूबर 2018
हिसाब ... बे-हिसाब यादों का ...
सुबह हुई और भूल गए
यादें सपना नहीं
यादें कपड़ों पे लगी धूल भी नहीं
झाड़ो, झड़ गई
उम्र से बे-हिसाब
जिंदगी के दिन खर्च करना
समुंदर की गीली रेत से सिप्पिएं चुनना
सब से नज़रें बचा कर
अधूरी इमारतों के साए में मिलना
धुंए के छल्लों में
उम्मीद भरे लम्हे ढूंढना
हाथों में हाथ डाले घंटों बैठे रहना
जूड़े में टंके बासी फूल जैसे
क्या फैंक सकोगी यादें
बे-हिसाब बीते दिन
जिंदगी के पेड़ पे लगे पत्ते नहीं
पतझड़ आया झड़ गए ...
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