स्वप्न मेरे: हिंदी रचना
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सोमवार, 7 जनवरी 2019

लम्हे इश्क के ...


एक दो तीन ... कितनी बार 
फूंक मार कर मुट्ठी से बाल उड़ाने की नाकाम कोशिश
आस पास हँसते मासूम चेहरे
सकपका जाता हूँ
चोरी पकड़ी गयी हो जैसे  
जान गए तुम्हारा नाम सब अनजाने ही

कितना मुश्किल हैं न खुद से नज़रें चुराना
इश्क से नज़रें चुराना

इंसान जब इश्क हो जाता है
उतरना चाहता है किसी दिल में
और अगर वो दिल उसके महबूब का हो
मिल जाता है उसे मुकाम

तेरी नर्म हथेली में हथेली डाले
गुज़ार सकता हूँ तमाम उम्र फुदकती गिलहरी जैसे

तेरे साथ गुज़ारा दुःख भी इश्वर है
पाक पवित्र तेरे आँचल जैसा
तभी तो उसकी यादों में जीने का दिल करता है 
प्रेम भी कितनी कुत्ती शै है

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

प्रेम-किस्से ...


यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

शहर की रंग-बिरंगी इमारतों से ये नहीं निकलते
न ही शराबी मद-मस्त आँखों से छलकते हैं
ज़ीने पे चड़ते थके क़दमों की आहट से ये नहीं जागते 
बनावटी चेहरों की तेज रफ़्तार के पीछे छिपी फाइलों के बीच
दम तोड़ देते हैं ये किस्से

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

पनपने को अंकुर प्रेम का  
जितना ज़रूरी है दो पवित्र आँखों का मिलन   
उतनी ही जरूरी है तुम्हारी धूप की चुभन 
जरूरी हैं मेरे सांसों की नमी भी
उसे आकार देने को 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

प्रेम-किस्से आसमान से भी नहीं टपकते
ज़रुरी होता है प्रेम का इंद्र-धनुष बनने से पहले
आसमान से टपकती भीगी बूँदें
ओर तेरे अक्स से निकलती तपिश

जैसे जरूरी है लहरों के ज्वार-भाटा बनने से पहले
अँधेरी रात में तन्हा चाँद का भरपूर गोलाई में होना 
ओर होना ज़मीन के उतने ही करीब
जितना तुम्हारे माथे से मेरे होठ की दूरी 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

बदलना भविष्य का ...

अपने अपने काल खण्ड की पगडंडियों  पर
सांस लेना जिन्हें मंज़ूर नहीं
ऐसे ही कुछ लैला मजनूँ , हीर रांझा के प्रेम के दस्तावेज़
बदल चुके हैं आज अमर प्रेम ग्रंथों में

कुछ सच जो गुनाह थे कल के काले लम्हों में
रोशन हैं आज शाश्वत सच की तरह

तो क्यों न मिल कर बदल दें “आज”
भविष्य में समझे जाने वाले इतिहास जैसे

गीता भी तो कहती है परिवर्तन संसार का नियम है
बदल दें आज भविष्य की सोच की तरह ...

सुना है भविष्य बदलना अपने हाथ में होता है ...

सोमवार, 20 अगस्त 2018

बातें ... खुद से ...


तुम नहीं होती तो कितना कुछ सोच जाता हूँ ... विपरीत बातें भी लगता है एक सी हैं ... ये सच्ची हैं या झूठी ...

चार पैग व्हिस्की के बाद सोचता हूँ 
नशा तो चाय भी दे देती 
बस तुम्हारे नाम से जो पी लेता ...

हिम्मत कर के कई बार झांकता हूँ तुम्हारी आँखों में, फिर सोचते हूँ ... सोचता क्या कह ही देता हूँ ... 

कुछ तो है जो दिखता है तुम्हारी नीली आँख में
वो बेरुखी नहीं तो प्रेम का नाम दे देना ...

फुटपाथ से गुज़रते हुए तुम्हे कुछ बोला था उस दिन, हालांकि तुम ने सुना नहीं पर कर लेतीं तो सच साबित हो जाती मेरी बात ...

दिखाना प्रेम के नाम पर
किसी ज्योतिषी को अपना हाथ
मेरा नाम का पहला अक्षर यूँ ही बता देगा ...

कितना कुछ होता रहता है, कितना कुछ नहीं भी होता ... हाँ ... बहुत कुछ जब नहीं होता, ये तो होता ही रहता है कायनात में ... 

मैंने डाले नहीं, तुमने सींचे नहीं
प्रेम के बीज अपने आप ही उग आते हैं ...

उठती हैं, मिटती हैं, फिर उठती हैं
लहरों की चाहत है पाना
प्रेम खेल रहा है मिटने मिटाने का खेल सदियों से ...

अकसर अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ ... एक तुम हो जो सुनती नहीं ... ये चाँद, ये सूरज, ये हवा भी तो नहीं सुनती ...  

धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज पहलू से मेरे  
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं ...

सोमवार, 26 मार्च 2018

जीत या हार ...


सपने पालने की कोई उम्र नहीं होती

वो अक्सर उतावली हो के बिखर जाना चाहती थी
ऊंचाई से गिरते झरने की बूँद सरीखी
ओर जब बाँध लिया आवारा मोहब्बत ने उसे ... 
उतर गई अंधेरे की सीडियां, आँखें बंद किए

ये सच है वो होता है बस एक पल 
बिखर जाने के बाद समेटने का मन नहीं होता जिसे

उम्र की सलेट पर जब सरकती है ज़िंदगी
कायनात खुद-ब-खुद बन जाती है चित्रकार
हालांकि ऐसा दौर कुछ समय के लिए आता है सबके जीवन में

(ओर वो भी तो इसी दौर से गुज़र रही थी
मासूम सा सपना पाले)

फिर आया तनहाई का लम्बा सफ़र

उजली बाहों के कई शहसवार वहां से गुज़रे
पर नहीं खुला सन्नाटों का पर्दा ...
उम्र काफी नहीं होती पहली मुहब्बत भुलाने को   
जुम्बिश खत्म हो जाती है आँखों की   
पर यादें ...
वो तो ताज़ा रहती हैं जंगली गुलाब की खुशबू लिए 

ये जीत है आवारा मुहब्बत की या हार उस सपने की
जिसको पालने की कोई उम्र नहीं होती

बुधवार, 19 जुलाई 2017

यादें ... बस यादें

यादें यादें यादें ... क्या आना बंद होंगी ... काश की रूठ जाएँ यादें ... पर लगता तो नहीं और साँसों तक तो बिलकुल भी नहीं ... क्यों वक़्त जाया करना ...

मिट्टी की
कई परतों के बावजूद
हलके नहीं होते
कुछ यादों की निशान
हालांकि मूसलाधार बारिश के बाद
साफ़ हो जाता है आसमान

साफ़ हो जाती हैं
गर्द की पीली चादर ओढ़े
हरी हरी मासूम पत्तियां

साफ़ हो जाती हैं
उदास घरों की टीन वाली छतें

ओर ... ये काली सड़क भी
रुकी रहती है जो
तेरे लौटने के इंतज़ार में

इंतज़ार है जो ख़त्म नहीं होता
जंगली गुलाब है 
जो खिलता बंद नहीं करता   

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

आंख-मिचोली ... नींद और यादों की

नींद और यादें ... शायद दुश्मन हैं अनादी काल से ... एक अन्दर तो दूजा बाहर ... पर क्यों ... क्यों नहीं मधुर स्वप्न बन कर उतर आती हैं यादें आँखों में ... जंगली गुलाब भी तो ऐसे ही खिल उठता है सुबह के साथ ...  

सो गए पंछी घर लौटने के बाद  
थका हार दिन, बुझ गया अरब सागर की आगोश में  
गहराती रात की उत्ताल तरंगों के साथ
तेरी यादों का शोर किनारे थप-थपाने लगा
आसमान के पश्चिम छोर पे
टूटते तारे को देखते देखते, तुम उतर जाती हो आँखों में  
(नींद तो अभी दस्तक भी न दे पाई थी)

जागते रहो” की आवाज़ के साथ
घूमती है रात, गली की सुनसान सड़कों पर 
पर नींद है की नहीं आती
तुम जो होती हो 
सुजागी आँखों में अपना कारोबार फैलाए  

रात का क्या, यूं ही गुज़र जाती है

और ठीक उस वक़्त 
जब पूरब वाली पहाड़ी के पीछे लाल धब्बों की दादागिरी
जबरन मुक्त करती है श्रृष्टि को अपने घोंसले से
छुप जाती हो तुम बोझिल पलकों में

उनींदी आँखों में नीद तो उस वक़्त भी नहीं आती

हाँ ... डाली पे लगा जंगली गुलाब 
जाने क्यों मुस्कुराने लगता है उस पल ... 

मंगलवार, 6 जून 2017

तितर बितर लम्हे ...

समय की पगडण्डी पे उगी मुसलसल यादें, इक्का दुक्का क़दमों के निशान ... न खत्म होने वाला सफ़र और गुफ्तगू तनहाई से ... ये लम्हे कभी गोखरू, कभी फूल ... तो कभी चुभता हुआ दंश, जंगली गुलाब का ...    

मेहनत की मुंडेर पे पड़ा होता है
कामयाबी का एक टुकड़ा
जरूरी है नसीब का होना
सौ मीटर की इस रेस को जीतने के लिए  
या फिर ...
तेरे जूडे में जंगली गुलाब लगाने के लिए
xxx
चल तो लेता है हर कोई
पर सकून भरी रहगुज़र नहीं मिलती
सफर से लंबा यादों का बोझ
ओर यादों की पोटली में ताज़ा जंगली गुलाब
शायद शुरू हो नया रास्ता
उम्र के आखरी चौराहे से
xxx
घर के दरवाजे पर छोड़ देता हूं दफ्तर का भारीपन  
की काफी है पत्नी के कन्धों पर
गृहस्थी ओर बच्चों के बस्ते का बोझ
xxx
आखरी पढाव पे टिके रहना संभव नहीं होता     
बर्फ की तरह हथेली से पिघल जाती है कामयाबी 
पहली लहर के साथ निकल जाती है समुन्दर की रेत

नसीब फिर जरूरी हो जाता है कोसने के लिए 

सोमवार, 29 मई 2017

यादें ... जंगली गुलाब की ...

धाड़ धाड़ चोट मारते लम्हे ... सर फट भी जाये तो क्या निकलेगा ... यादों का मवाद ... जंगली गुलाब का कीचड़  ... समय की टिकटिक एक दुसरे से जुड़ी क्यों है ... एक पल, यादों के ढेर दूसरे पल को सौंपे, इससे पहले सन्नाटे का पल क्यों नहीं आता ...

फंस के रह गया है ऊँगली से उधड़ा सिरा
जंगली गुलाब के काँटों में 
तुझसे दूर जाने की कोशिश में
खिंच रही है उम्र धागा धागा

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जैसे बची रहती है आंसू की बूँद पलकों के पीछे
खुशी का आखरी लम्हा भी छुपा लिया

आसमानी चुन्नी का अटकना तो याद है ...
जंगली गुलाब की चुभन
रह रह के उठती है उस रोज से

xxxx

मुसलसल चलने का दावा
पर कौन चल सका अब तक फुरसत के चार कदम

धूल उड़ाते पाँव
गुबार के पीछे जागता शहर
पेड़ों के इर्द-गिर्द बिखरे यादों के लम्हे

मुसाफिर तो कब के चले गए
खिल रहा है जंगली गुलाब का झाड़
किसी के इन्तार में  

xxxx

कुछ मुरीदों के ढेर, मन्नतों के धागे ...
दुआ में उठते हाथों के बीच
मुहब्बत की कब्र से उठता जंगली गुलाब की अगरबत्ती का धुंवा 

इस खुशबू की हद मेरे प्रेम जितनी तो होगी ना ...?

सोमवार, 8 मई 2017

संघर्ष सपनों का ... या जिंदगी का

पहली सांस का संघर्ष शायद जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है ... हालांकि उसके बाद भी जीवन का हर पल किसी सग्राम से कम नहीं ... साँसों की गिनती से नहीं ख़त्म होती उम्र ... उम्र ख़त्म होती है सपने देखना बंद करने से ... सपनों की खातिर लड़ने की चाह ख़त्म होने से ...  

मौसम बदला पत्ते टूटे
कहते हैं पतझड़ का मौसम है चला जायगा

सुबह हुई सपने टूटे
पर रह जाती हैं यादें पूरी उम्र के लिए
क्या आसान होगा
अगली नींद तक सपनों को पूरा करना
और ... जी भी लेना

हकीकत की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन
खेती लायक नहीं होती 
दूसरों के हाथों से छीनने होते हैं लम्हें   

जागना होता है पूरी रात
सपनों के टूटने के डर से नहीं 
इस डर से ...
की छीन न लिए जाएँ सपने आँखों से

इसलिए जब तक साँसें हैं पूरा करो
सपनों को भरपूर जियो

जिंदगी के सबसे हसीन सपने
कहाँ आते हैं दुबारा ... टूट जाने के बाद  

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

ख़ामोशी ... एक एहसास

क्या बोलते रहना ही संवाद है ... शब्द ही एकमात्र माध्यम है अपनी बात को दुसरे तक पहुंचाने का ... तो क्या शब्द की उत्पत्ति मनुष्य के साथ से ही है ... अगर हाँ तो फिर ख़ामोशी ...

ख़ामोशी टुकड़ा नहीं
मुंह में डाला स्वाद ले लिया

ख़ामोशी पान भी नही चबाते रहे अंदर अंदर
जब चाहा थूक दिया कोरी दीवार पर
अपने होने का एहसास दिखाने के लिए

लड़ते रहना होता है अपने आप से निरंतर  
दबानी पड़ती है दिल की कशमकश
रोकना होता है आँखों का आइना
बोलता रहता है जो निरंतर
तब कहीं जा कर ख़ामोशी बनाती है अपनी जगह  
पाती है नया आकार
बन पाती है खुद अपनी ज़ुबान  

हाँ ... तब ही पहुँच पाती है अपने मुकाम पर
जहाँ दो इंच का फांसला तय करने में गुज़र जाए पूरी उम्र  

ख़ामोशी चीख है सन्नाटे में
जो आती है दबे पाँव कर जाती है बहरा हमेशा के लिए  

ख़ामोशी सच में कोई टुकड़ा नहीं ...

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

चाहत उम्मीद की ...

सोचता हूँ फज़ूल है उम्मीद की चाह रखना ... कई बार गहरा दर्द दे जाती हैं ... टुकड़ा टुकड़ा मौत से अच्छा है  खुदकशी कर लेना ...

कुछ आहटें आती है उम्मीद की उस रास्ते से
छोड़ आए थे सपनों के सतरंगी ढेर जहां   
आशाओं के रेशमी पाँव रहने दो पालने में
की ज़मीन नहीं मिल पायगी तुम्हारी दहलीज़ की 
लटके रहेंगे हवा में
लटका रहता है खुले आसमान तले जैसे चाँद  

मत देना सांस उम्मीद को  
छोटी पड़ जाती है उम्र की पगडण्डी   
ओर बंद नहीं होता डाली पे फूल खिलना 
फज़ूल जाती हैं पतझड़ की तमाम कोशिशें
बारहा लहलहाते हैं उम्मीद के पत्ते

छुपा लेना उंगली का वो सिरा
झिलमिलाती है जहां से बर्क उम्मीद की   
आँखें पी लेती हैं तरंगें शराब की तरह  
नशा है जो उम्र भर नहीं उतरता

मत छोड़ना नमी जलती आग के गिर्द
भाप बनने से पहले ले लेते हैं पनाह उम्मीद के लपकते शोले
मजबूत होती रहती हैं जड़ें उम्मीद की  

हालांकि खोद डाली है गहरी खाई उस रास्ते के इस ओर मैंने
जहां से होकर आता है लाव-लश्कर उम्मीद का
पर क्या करूं इस दिल का  
जो छोड़ना नहीं चाहता दामन उम्मीद का ...  

सोमवार, 20 मार्च 2017

आज और बस आज ...

मुसलसल रहे आज तो कितना अच्छा ... प्रश्नों में खोए रहना ... जानने का प्रयास करना ... शायद व्यर्थ हैं सब बातें ... जबरन डालनी होती है जीने की आदत आने वाले एकाकी पलों के लिए ... भविष्य की मीठी यादों के लिए  वर्तमान में कुछ खरोंचें डालना ज़रूरी है, नहीं तो समय तो अपना काम कर जाता है ...

जिंदगी क्या है
कई बार सोचने की कोशिश में भटकता है मन
शब्दकोष में लिखे तमाम अर्थ
झड़ने लगते हैं बेतरतीब
और गुजरते वक्त की टिकटिकी
हर पल जोड़ती रहती है नए सफे जिंदगी के अध्याय में

वक्त के पन्नों पर अगर नहीं उकेरा
खट्टी-मीठी यादों का झंझावात
नहीं खींचा कोई नक्शा सुनहरी शब्दों के मायने से  
अगर नहीं डाली आदत वर्तमान में जीने की  

तो इतना ज़रूर याद रखना

जिंदगी के कोरे सफे पर  
समय की स्याही बना देती है जख्मी निशान  
कुछ शैतानी दिमाग गाड़ देते हैं सलीब
रिसते हैं ताज़ा खून के कतरे जहाँ से उम्र भर

ज़रूरी है इसलिए हर अवस्था के वर्तमान को संवारना
पल-पल आज को जीने की आदत बनाना 
ताकि भविष्य में इतिहास की जरूरत न रहे  

सोमवार, 6 मार्च 2017

तलाश ...

तलाश ... शब्द तो छोटा हैं पर इसका सफ़र, इसकी तलब, ख़त्म नहीं होती जब तक ये पूरी न हो ... कई बार तो पूरी उम्र बीत जाती है और ज़िन्दगी लौट के उसी लम्हे पे आ आती है जहाँ खड़ा होता है जुदाई का बेशर्म लम्हा ... ढीठता के साथ ... 

उम्र के अनगिनत हादसों की भीड़ में
दो जोड़ी आँखों की तलाश
वक़्त के ठीक उसी लम्हे पे ले जाती है
जहाँ छोड़ गईं थीं तुम
वापस ना लौटने के लिए

उस लम्हे के बाद से
तुम तो हमेशा के लिए जवान रह गईं  

पर मैं ...

शरीर पर वक़्त की सफेदी ओढ़े
ढूँढता रहा अपने आप को

जानता हूं हर बीतता पल
नई झुर्रियां छोड़ जाता है चेहरे पे
गुज़रे हुवे वक़्त के साथ
उम्र झड़ती है हाथ की लकीरों से
पर सांसों का ये सिलसिला
ख़त्म होने का नाम नहीं लेता

पता नहीं वो लम्हा 
वक़्त के साथ बूढ़ा होगा भी या नहीं ... 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

चाहत ...

कहाँ खिलते हैं फूल रेगिस्तान में ... हालांकि पेड़ हैं जो जीते हैं बरसों बरसों नमी की इंतज़ार में ... धूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है की पास आती नहीं ... कहने को रेतीला सागर साथ है ...

मैंने चाहा तेरा हर दर्द
अपनी रेत के गहरे समुन्दर में लीलना

तपती धूप के रेगिस्तान में मैंने कोशिश की
धूल के साथ उड़ कर
तुझे छूने का प्रयास किया

पर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं  

आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में

कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...

सोमवार, 23 जनवरी 2017

प्रश्न बेतुका सा ...

शोध कहाँ तक पहुँच गया है शायद सब को पता न हो ... हाँ मुझे तो बिलकुल ही नहीं पता ... इसलिए अनेकों  बेतुके सवाल कौंध जाते हैं ज़हन में ... ये भी तो एक सवाल ही है ...

सिलसिला कितना लंबा
खत्म होने का नाम नहीं

अमीरों के जूठे पत्तल पे झपटते इंसान
फिर कुत्ता-बिल्ली
पंछी
कीट-पतंगे
दीमक
बेक्टीरिया
वाइरस

क्या पता कुछ ओर भी
जो द्रध्य नहीं

आत्म-हत्या करना आसान नही   
कुलबुलाते पेट के साथ 
आत्म-हत्या की सोच से पहले  
भूख से जीतना होता है  

पर क्या
कुते बिल्ली, कीट पतंगे दीमक
की मानसिकता में भी ऐसा होता है  

ऐसा तो नहीं आत्म-हत्या
प्राणी-जगत के 
सबसे उन्नत जीव की उपज है ... ?

रविवार, 22 मार्च 2015

रफ़्तार ...

बुलंदी का नशा हर नशे से गहरा होता है ... तरक्की की रफ़्तार आजू-बाजू कुछ देखने नहीं देती ... प्रेम, इश्क, रिश्ते, नाते, अपनेपन का एहसास, सब कुछ बस एक छलांग मार के निकल जाना ... एक ही झटके में पा लेने का उन्माद, एक हवस जो भविष्य का सोचने नहीं देती ... चमक जो थकान के बाद आने वाले दिन देखने नहीं देती ...

कितनी अजीब बात है
सागर के इस छोर से उस छोर तक
धरती के इस कोने से उस कोने तक
बस भागता ही रहा

ये मिल जाए वो मिल जाए
ये मिल गया अब वो पाना है
सब कुछ पा लेने की होड़ में
दुनिया की हर सड़क आसानी से नाप डाली

पर नहीं नाप सका तो उसके दिल तक की दूरी
हालांकि मुश्किल नहीं था उस सड़क को पार करना
उस एक लम्हे को बाहों में समेटना
दो कदम की दूरी नापना

अब जबकि दुनिया नाप लेने के बाद
उसी जगह पे वापस हूँ
(शायद भूल गया था दुनिया गोल है)
और चलने की शक्ति लगभग जवाब दे रही है
कोई अपना नहीं इस ठिकाने पर
सिवाए तन्हाई और गहरी उदासी के

भूल गया था की याद रखना होता है
उम्र, गति और दूरी का हिसाब भी ज़िन्दगी की रफ़्तार में
रिश्ते, नातों और अपनों के साथ के साथ