स्वप्न मेरे: तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए ...

शनिवार, 1 नवंबर 2025

तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए ...

कश्ती है समुंदर में कब से, इक बार तो साहिल आ जाए.
इस बार करो कुछ तुम दिलबर, अब लौट के घर दिल आ जाए.

आँधी का इरादा लगता है, बादल भी गरजते हैं नभ पर,
मंज़िल पे कदम अब रखना है, आनी है जो मुश्किल आ जाए.

जाहिल हो के काबिल या फ़ाज़िल, कामिल हो के हो चाहे बिस्मिल,
चौबन्द रहे नाकेबंदी, इस बार जो क़ातिल आ जाए.

अभ्यास, मनन, चिंतन, मेहनत, हो जाए है पल में बे-मानी,
दो चार कदम चल कर झट से, कदमों में जो मंज़िल आ जाए.

अलमस्त हसीना दक्षिण की , हंस-हंस के मिला करती है जो,
उल्फ़त का तक़ाज़ा कर दूँगा, भाषा जो ये तामिल आ जाए.

चंदा की सुनहरी टैरस तक, कुछ वक़्त लगेगा आने में,
बादल हैं गगन पर कजरारे, बरसात न झिल-मिल आ जाए.

मुश्किल से जो मिलता है मुझको, हाथों से फ़िसल जाता है सब,
तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए.
(तरही ग़ज़ल)

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब!! किनारे की ख्वाहिश, मंज़िल पर पहुँचने की जल्दी, नई क़िस्मत की चाहत और न जाने क्या-क्या हसरतें मन उगाता रहता है, और शायर उन्हें शब्दों के बगीचे में रोपता जाता है!!

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  2. आपके हर शेर में एक अलग एहसास है,ऐसा लगता है जैसे कोई अपनी ज़िंदगी की पूरी कहानी इन लफ़्ज़ों में बयां कर रहा हो। लय इतनी सुंदर है कि पढ़ते-पढ़ते मन बहक जाता है। कहीं उम्मीद है, कहीं दर्द, कहीं प्यार, और बीच-बीच में थोड़ी शरारत भी।

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  3. मतबल अब आपको साउथ की हिरोइन चैये 😜
    बढ़िया सृजन बन्धुवर

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  4. तरही ग़ज़ल में आपकी सृजनशीलता देखते ही बनती है ।बहुत खूब !! अति सुन्दर !!

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आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है