स्वप्न मेरे: फिर सियासत को नया गठ-जोड़ दो ...

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

फिर सियासत को नया गठ-जोड़ दो ...

घिस गए जो आईने वो तोड़ दो.
बुझ गए जो दीप मिल के फोड़ दो.

धूप ने आते ही बादल से कहा,
तुम तो बीडू रास्ता ये छोड़ दो.

तंग होते जा रहे हैं शहर सब,
गाँव की पगडंडियों को मोड़ दो.

दर्द हो महसूस बोले ही बिना,
दिल से दिल के तार ऐसे जोड़ दो.

जोड़ने की बात फिर से कर सके,
फिर सियासत को नया गठ-जोड़ दो.

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में मंगलवार, 28 अक्टूबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  2. प्रयोगात्मक ग़ज़ल...बीडूू...अतिउत्तम...👏👏👏

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  3. बदलाव की लहर चलनी ही चाहिए,, पुराने ढर्रे पर कब चलते रहेंगे,,,बहुत खूब,,

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  4. धूप ने आते ही बादल से कहा,
    तुम तो बीडू रास्ता ये छोड़ दो.
    देशज शब्द सृजन को कहीं न कहीं रोचक बना देते हैं । सुन्दर सृजन ।

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  5. तोड़-फोड़ से बात शुरू हुई थी पर गठ-जोड़ पर ख़त्म हुई, बढ़िया है

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  6. यार, कमाल की बात कही है आपने। हम अक्सर पुराने दर्द, पुराने रिश्तों और पुराने सोच को ढोते रहते हैं, जबकि आगे बढ़ने का रास्ता वही खोलता है जो हम छोड़ देते हैं। दिल से दिल जोड़ने वाली लाइन सबसे खूबसूरत लगी, क्योंकि आज की जिंदगी में यही सबसे ज़रूरी है।

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