स्वप्न मेरे: बूट
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सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

रात की काली स्याही ढल गई ...


दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई

सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब 
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े  
हर सवारी आठ तक निकल गई
रात की काली ...

कुछ बुजुर्गों का भी घर में ज़ोर था
साथ कपड़े, बरतनों का शोर था
माँ थी सीधी ये समझ न पाई थी
बाई के नखरे थे, मन में चोर था
काम, इतना काम, रोटी जल गई
रात की काली ...

ढेर सारे काम बाकी रह गए
ख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए 
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...

सब पढ़ाकू थे, में कुछ पीछे रहा
खेल मस्ती में मगर, आगे रहा
सर पे आई तो समझ में आ गया
डोर जो उम्मीद की थामे रहा 
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
रात की काली ...

सोमवार, 30 जुलाई 2018

हम धुंए के बीच तेरे अक्स को तकते रहे ...


हम उदासी के परों पे दूर तक उड़ते रहे
बादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे

गर्द यादों की तेरी सेंडिल से घर आती रही

हम तेरा कचरा उठा कर घर सफा करते रहे


तुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं  
हम मुनिस्पेल्टी के नल से बारहा रिसते रहे

कागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई 
और हम चूने की पपड़ी की तरह झड़ते रहे

जबकि तेरा हर कदम हमने हथेली पर लिया
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे

था नहीं आने का वादा और तुम आईं नहीं
यूँ ही कल जगजीत की गज़लों को हम सुनते रहे

बिजलियें, न बारिशें, ना बूँद शबनम की गिरी
रात छत से टूटते तारों को हम गिनते रहे

कुछ बड़े थे, हाँ, कभी छोटे भी हो जाते थे हम
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे

उँगलियों के बीच इक सिगरेट सुलगती रह गई
हम धुंए के बीच तेरे अक्स को तकते रहे