स्वप्न मेरे: चिट्ठी
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मंगलवार, 17 जुलाई 2018

कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं ...


चूड़ियाँ कुछ तो लाल रक्खी हैं
जाने क्यों कर संभाल रक्खी हैं

जिन किताबों में फूल थे सूखे
शेल्फ से वो निकाल रक्खी हैं 

हैं तो ये गल्त-फहमियाँ लेकिन
चाहतें दिल में पाल रक्खी हैं

बे-झिझक रात में चले आना
रास्तों पर मशाल रक्खी हैं

वो नहीं पर निशानियाँ उनकी
यूँ ही बस साल साल रक्खी हैं

चिट्ठियाँ कुछ तो फाड़ दीं हमनें  
कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं

सोमवार, 16 अप्रैल 2018

यादों की खुशबू से महकी इक चिट्ठी गुमनाम मिली ...


जाने किसने भेजी है पर मुझको तो बे-नाम मिली
आज सुबह दरवाज़ा खोला तो अख़बार के नीचे से
यादों की खुशबू से महकी इक चिट्ठी गुमनाम मिली

टूटी निब, पेन्सिल के टुकड़े, साइकिल की टूटी गद्दी
दागी कंचे, गोदे लट्टू, चरखी से लिपटी सद्दी
छुट्टी के दिन सुबह से लेकर रात तलक की कुछ बातें
बीते काल-खंड की छाया अनायास बे-दाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...

दंगल, मेले, नौटंकी की खुशियों में डूबी बस्ती
हाथ से चलने वाले लकड़ी के झूलों की वो मस्ती
दद्दा के कंधे से देखी रावण की जलती हस्ती
दिल के गहरे तहखाने से जाने किसके नाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...

पीठ मिली जो पिट्ठू की गेंदों से सिक के लाल हुई
गिल्ली जो डंडे के हाथों पिट-पिट कर बेहाल हुई
छोटी बेरी के काँटों से दर्द में डूबी इक ऊँगली 
भूतों की आवाजों वाली इक कुटिया बदनाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...

धूप मिली जो घर के आँगन में अकसर आ जाती थी
गाय मिली जो बासी रोटी छिलके सब खा जाती थी
वो कौवा जो छीन के रोटी हाथों से उड़ जाता था
फिर अतीत से उड़ कर मैना कोयल मेरे नाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...

कुछ अपनी जानी पहचानी अपनी ही आवाज़ मिली
ताल मिलाती मेज, तालियाँ, सपनों की परवाज़ मिली
टूटे शेर, अधूरी नज्में, आँखों में गुजरी रातें
फिर किताब के पीले पन्नों पर अटकी इक शाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...