स्वप्न मेरे: दराज़
दराज़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
दराज़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

मेरी निगाह में रहता है वो ज़माने से ...


कभी वो भूल से आए कभी बहाने से  
मुझे तो फर्क पड़ा बस किसी के आने से

नहीं ये काम करेगा कभी उठाने से
ये सो रहा है अभी तक किसी बहाने से

लिखे थे पर न तुझे भेज ही सका अब-तक
मेरी दराज़ में कुछ ख़त पड़े पुराने से

कभी न प्रेम के बंधन को आज़माना यूँ
के टूट जाते हैं रिश्ते यूँ आज़माने से

तुझे छुआ तो हवा झूम झूम कर महकी   
पलाश खिलने लगे डाल के मुहाने से

निगाह भर के मुझे देख क्या लिया उस दिन  
यहाँ के लोग परेशाँ हैं इस फ़साने से

मुझे वो देख भी लेता तो कुछ नहीं कहता
मेरी निगाह में रहता है वो ज़माने से
(तरही गज़ल) 

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं ...


चूड़ियाँ कुछ तो लाल रक्खी हैं
जाने क्यों कर संभाल रक्खी हैं

जिन किताबों में फूल थे सूखे
शेल्फ से वो निकाल रक्खी हैं 

हैं तो ये गल्त-फहमियाँ लेकिन
चाहतें दिल में पाल रक्खी हैं

बे-झिझक रात में चले आना
रास्तों पर मशाल रक्खी हैं

वो नहीं पर निशानियाँ उनकी
यूँ ही बस साल साल रक्खी हैं

चिट्ठियाँ कुछ तो फाड़ दीं हमनें  
कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं

सोमवार, 29 जून 2015

बुन्दा

हर पुराने को समेट के रखना क्या ठीक है ... फिर उन्ही पुरानी चीज़ों को बार बार देखना, फिर से सहेजना, क्या ये ठीक है ... क्या चीज़ों का, यादों का कूड़ा दर्द के अलावा कुछ देता है ... सहेजने के बाद क्या निकाल फैंकना आसान है इन्हें ... शायद हाँ, शायद ना ...

मुश्किल होता है
पुरानी दराज़ साफ़ करना
बेतरतीब बिखरी यादों के अनगिनत सफे
कुछ को फाड़ देना
कुछ को सीधे कचरे में ठेल देना
और कुछ को ...
अपनी ही नज़र बचा के सहेज लेना

यादें फैंकना
जिस्म से कई हजार साँसें नौच लेने के बराबर होता है
हालांकि उम्र फिर भी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती

याद है अमावस की वो काली रात
मेरे सीने से लग के रोते रोते
तुम्हारे कान का बुन्दा अटक गया था मेरी कमीज़ के साथ
उस दिन नज़र बचा के जेब में रख लिया था मैंने उसे

तुम तो अपना बोझ हल्का करके चली गयीं
पर ये बुन्दा फांस की तरह अटका रहा सीने में
संभलते संभलते इक उम्र छिज गई थी जिंदगी से

इस बार सफों को समेटने की कोशिश में
वो बुन्दा भी छिटक आया दराज़ के किसी कोने से

कितनी अजीब बात है न ...
अब जब सांस कुछ थमने लगी थी
फांस की तरह अटकी यादें भी बह चुकी थीं
आज फिर ...
नज़र बचा कर ये बुन्दा सहेजने का मन करता है