इत-उत यूँ ही भटकती है मुहब्बत तेरी ...
अब लगी, तब ये लगी, लग ही गई लत तेरी I
कब हुई, कैसे हुई, हो गई आदत तेरी I
ख़त किताबों में
जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
इश्क़ बोलूँ के
इसे कह दूँ शरारत तेरी I
तुम जो अक्सर ही
सुड़कती हो मेरे प्याले से,
चाय की लत न कहूँ
क्या कहूँ चाहत तेरी I
तुम कहीं मेरी
खिंचाई तो नहीं करती हो,
एक अनसुलझी सी
उलझन है ये उलफ़त तेरी I
शाल पहनी थी जो
उस रोज़ न माँगी अब तक,
इब्तिदा प्रेम की
कह दूँ के इनायत तेरी I
पहने रहती थीं
पुलोवर जो मेरा तुम दिन भर,
उसके रेशों से
महकती है नज़ाफ़त तेरी I
उड़ती फिरती है
जो तितली वो अभी कह के गई,
इत-उत यूँ ही
भटकती है मुहब्बत तेरी I
वाह!बहुत सुंदर सर 👌
जवाब देंहटाएंसादर
वाह दिगम्बर जी ! आज सबसे पहले आपकी शानदार ग़ज़ल से मुखातिब हूँ | वाह के अलावा क्या कहा जा सकता है -- मुहब्बत के लम्हों की खुशबु से महकती ग़ज़ल के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई |👌👌👌🙏🙏💐💐🌷💐
जवाब देंहटाएंएक से एक बढ़कर खेत 👌👌👌🙏🌷🌷🙏💐💐
जवाब देंहटाएंख़त किताबों में जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
इश्क़ बोलूँ के इसे कह दूँ शरारत तेरी I///
तुम जो अक्सर ही सुड़कती हो मेरे प्याले से,
चाय की लत न कहूँ क्या कहूँ चाहत तेरी I////
🙏🙏🙏🙏🙏
अब लगी, तब ये लगी, लग ही गई लत तेरी I
जवाब देंहटाएंकब हुई, कैसे हुई, हो गई आदत तेरी I
ख़त किताबों में जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
इश्क़ बोलूँ के इसे कह दूँ शरारत तेरी I
वाह ! लग ही गई लत तेरी !
आपकी क़लम का जादू तो शायरी के शैदाइयों के सर पर चढ़कर बोलने वाला है दिगंबरजी।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!! लाजवाब ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंगजब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गजल।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसब कुछ तो उन्हीं का है ... शरारत भी और इनायत भी ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल 👌👌👌👌
ख़त किताबों में जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
जवाब देंहटाएंइश्क़ बोलूँ के इसे कह दूँ शरारत तेरी I
तुम जो अक्सर ही सुड़कती हो मेरे प्याले से,
चाय की लत न कहूँ क्या कहूँ चाहत तेरी I
,, एकदम बोल उठती आपकी गजल, कमाल का हुनर पाया है आपने, कैसे इतनी सहजता आती है लेखन में!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 28 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२८-०७-२०२१) को
'उद्विग्नता'(चर्चा अंक- ४१३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंकब, कैसे, किसकी आदत पड़ जाती है, पता ही नहीं चलता ! सालता है फिर, उसका ना होना
जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंखतो-किताबत हो गयी, एक ही प्याले से चाय भी पी ली गयी, शाल और पुलोवर का आदान-प्रदान भी हो गया और आप की मुहब्बत अब भी भटक रही है?
ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना। अनुपम
जवाब देंहटाएंवाह! खूबसूरत अन्दाज़
जवाब देंहटाएंAAPKA BLOG DEKH KAR ACHCHHA LAGA
जवाब देंहटाएंसुंदर खूबसूरत ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल लिखी है। बहुत सुंदर।बधाई सर। सादर।
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना,
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत सृजन
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए भी शब्द कहीं खो जाते हैं । ऐसा भी खोना होता है क्या ?
जवाब देंहटाएंख़त किताबों में जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
जवाब देंहटाएंइश्क़ बोलूँ के इसे कह दूँ शरारत तेरी I
वाह!!!
पहने रहती थीं पुलोवर जो मेरा तुम दिन भर,
उसके रेशों से महकती है नज़ाफ़त तेरी I
वाहवाह!!!
क्या बात....
लाजवाब बस लाजवाब...।
अब लगी, तब ये लगी, लग ही गई लत तेरी I
जवाब देंहटाएंकब हुई, कैसे हुई, हो गई आदत तेरी I',,,,,,,कुछ अलग और नए अंनदाज में लिखा है आपने बहुत लाजवाब, आदरणीय शुभकामनाएँ
उड़ती फिरती है जो तितली वो अभी कह के गई,
जवाब देंहटाएंइत-उत यूँ ही भटकती है मुहब्बत तेरी I
क्या बात है ! आनंद आ जाता है आपको पढ़ के