स्वप्न मेरे: सितंबर 2025

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

माँ

आ गई २५ सितम्बर ... वैस तो माँ आस-पास ही होती है पर आज के दिन रह-रह के उसकी कमी महसूस होती है ... माँ जो है मेरी ... पिछले 13 सालों में उम्र पक गई, बूढ़ा भी हो गया पर उसे याद कर के बचपना घिर आता है … 


माँ नायक अध्यापक रथ-संचालक होती है.

तिल-तिल जलती जीवन पथ पर दीपक होती है.


दख़ल बनी रहती जब तक घर गृहस्ती में माँ की,

हँसी-ठिठोली गुस्सा मस्ती तब तक होती है.


रिश्ते-नाते, लेन-देन, सुख-दुख, साँझ-सवेरा,

माँ जब तक होती है घर में रौनक होती है.


उम्र भले हो घर में सब छोटे ही रहते हैं,

बूढ़ी हो कर भी माँ सबकी रक्षक होती है.


देख के क्यों लगता है तुरपाई में उलझी माँ,

रिश्तों के कच्चे धागों में बंधक होती है.


बचपन से ले कर जब तक रहती हमें ज़रूरत,

संपादक हो कर भी वो आलोचक होती है.


कदम-कदम पे माँ ने की है क्षमता विकसित जो,

निर्णय लेने में पल पल निर्णायक होती है.

शनिवार, 20 सितंबर 2025

जो बनाते हैं अक्सर हवाई-क़िला ...

हो किसी को किसी से न कोई गिला.
मिलने-जुलने का चलता रहे सिल-सिला.

हम-सफ़र रह-गुज़र में मिले अन-गिनत,
जो भी हमसे मिला दर्द में तर मिला.

वक़्त पर चन्द पत्ते भी पतझड़ हुए,
वक़्त पर फूल भी मुस्कुरा कर खिला.

बूँद से बूँद मिल के नदी बन गई,
लोग जुड़ते रहे बन गया क़ाफ़िला.

चन्द लफ़्ज़ों ने घायल किया है उसे,
खुरदरी राह पर जो न अब तक छिला.

पेड़ टूटा जहाँ घास थी जस-की-तस,
जिसकी गरदन थी ऊँची वो जड़ से हिला.

उनको मिलती है मंज़िल भी बस ख़्वाब में,
जो बनाते हैं अक्सर हवाई-क़िला.

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

कान्हा - एक ग़ज़ल

 मेरी एक ग़ज़ल वर्षा जी की आवाज़ में … वर्षा जी रायपुर की रहने वाली हैं और बहुत ही कमाल की आवाज़ है उनकी … 

बहुत आभार वर्षा जी का इस कान्हा को समर्पित ग़ज़ल को आवाज़ देने के लिए … 

पाँव कान्हा के छू कर विहल हो गए 

माता यमुना के तेवर प्रबल हो गए 

सौ की मर्यादा टूटी सुदर्शन चला 

पल वो शिशुपाल के काल-पल हो गए 

राधे-राधे जपा हो गई तब कृपा 

कुंज गलियन में जीवन सफल हो गए



सोमवार, 8 सितंबर 2025

पर न जाने घर पे कितनी बार ही खटके हुए …

ढूँढते हो क्यों पुराने आईने चटके हुए.
और कुछ लम्हे किसी दीवार पे अटके हुए.

हम है ठहरी झील की मानिन्द गुज़रे वक़्त की,
लोग आते है किसी की याद में भटके हुए.

डूबना तो था हमारे भाग्य में लिक्खा हुआ,
हम तो वो हैं तिनके से भी खींच के झटके हुए.

एक आवारा नदी से बह रहे थे दूर तक,
वक़्त के बदलाव में तालाब हम घट के हुए.

उगते सूरज को हमेशा साथ रखते हैं सभी,
हम हैं ढलती शाम जैसे धूप से पटके हुए.

नाप में छोटा बड़ा होना लिखा तक़दीर में,
हम क़मीज़ों से हैं अक्सर शैल्फ़ में लटके हुए.

क्या कहूँगा सोच कर खोला नहीं दर फिर कभी,
पर न जाने घर पे कितनी बार ही खटके हुए.