स्वप्न मेरे: पर न जाने घर पे कितनी बार ही खटके हुए …

सोमवार, 8 सितंबर 2025

पर न जाने घर पे कितनी बार ही खटके हुए …

ढूँढते हो क्यों पुराने आईने चटके हुए.
और कुछ लम्हे किसी दीवार पे अटके हुए.

हम है ठहरी झील की मानिन्द गुज़रे वक़्त की,
लोग आते है किसी की याद में भटके हुए.

डूबना तो था हमारे भाग्य में लिक्खा हुआ,
हम तो वो हैं तिनके से भी खींच के झटके हुए.

एक आवारा नदी से बह रहे थे दूर तक,
वक़्त के बदलाव में तालाब हम घट के हुए.

उगते सूरज को हमेशा साथ रखते हैं सभी,
हम हैं ढलती शाम जैसे धूप से पटके हुए.

नाप में छोटा बड़ा होना लिखा तक़दीर में,
हम क़मीज़ों से हैं अक्सर शैल्फ़ में लटके हुए.

क्या कहूँगा सोच कर खोला नहीं दर फिर कभी,
पर न जाने घर पे कितनी बार ही खटके हुए.

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह्ह बहुत शानदार ,लाज़वाब गज़ल सर।
    सादर।
    -------

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार 9 सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन!क्या बात है ? बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब
    उगते सूरज को हमेशा साथ रखते हैं सभी,
    हम हैं ढलती शाम जैसे धूप से पटके हुए.
    👌🙏

    जवाब देंहटाएं
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