और दिल से कभी नहीं जाती.
जीते रहते हैं, कहते रहते हैं,
ये जुदाई सही नहीं जाती.
नींद, डर, ख्व़ाब, आते-जाते हैं,
मौत आ कर कभी नहीं जाती.
आँख से हाँ लबों से ना, ना, ना,
ये अदा हुस्न की नहीं जाती.
राज़ की बात ऐसी होती है,
हर किसी से जो की नहीं जाती.
शायरी छोड़ कर ज़रा सोचो,
मय निगाहों से पी नही जाती.
तट पे गंगा के आजमाएंगे,
कब तलक तिश्नगी नहीं जाती.
ये जुदाई सही नहीं जाती.
नींद, डर, ख्व़ाब, आते-जाते हैं,
मौत आ कर कभी नहीं जाती.
आँख से हाँ लबों से ना, ना, ना,
ये अदा हुस्न की नहीं जाती.
राज़ की बात ऐसी होती है,
हर किसी से जो की नहीं जाती.
शायरी छोड़ कर ज़रा सोचो,
मय निगाहों से पी नही जाती.
तट पे गंगा के आजमाएंगे,
कब तलक तिश्नगी नहीं जाती.
वाह
जवाब देंहटाएंवाह्ह सर..लाज़वाब गज़ल।
जवाब देंहटाएंसादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
शायरी छोड़ कर ज़रा सोचो,
जवाब देंहटाएंमय निगाहों से पी नही जाती.
तट पे गंगा के आजमाएंगे,
कब तलक तिश्नगी नहीं जाती.
.....बहुत खूब,,,आपकी गजलों को पढ़ना एक नया अनुभव रहता है हरदम,,,
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंबात उनसे कही नहीं जाती.
जवाब देंहटाएंऔर दिल से कभी नहीं जाती.
उम्दा ग़ज़ल
वाह वाह वाह... बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत ही सरल और सहज अभिव्यक्ति |सभी शेर अपने आप में सम्पूर्ण और मोहक हैं | बधाई और शुभकामनाएं दिगंबर जी |
जवाब देंहटाएंबेहद ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...👏👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंक्या बात...
लाजवाब गजल
तट पे गंगा के आजमाएंगे,
कब तलक तिश्नगी नहीं जाती.
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