शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर ...
लुप्त हो जाते हें जब इस रात के बोझिल पहर.
मंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर.
शाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
गेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर.
पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
एक पल पर्दा उठा, नज़रें मिलीं, उफ़ क्या मिलीं,
हो वही बस एक पल फिर जिंदगी जाए ठहर.
धूप नंगे सर उतर आती है छत पर जब कभी,
तब सुलग उठता है घर आँगन गली, सहरा दहर.
शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.
इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.
पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
जवाब देंहटाएंप्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
प्रेम की लहर निरंतर उठती रहनी चाहिए ... खूबसूरत ग़ज़ल
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गजल, दिगम्बर भाई।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।🌻
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुघवार 05 मई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहिंंदी में ग़जल ...वाह क्या खूब कहा है नासवा जी आपने कि ''मंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर.'' देश औश्र समाज को एक धागे में समेट दिया आपने
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार
जवाब देंहटाएंइस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
जवाब देंहटाएंशिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.
...बेहतरीन पंक्तियाँ आदरणीय नसवा साहब।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -5-21) को "शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर "(चर्चा अंक 4057) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
जवाब देंहटाएंशब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.
इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर...बहुत सुंदर अल्फाजों में सजी नायाब गज़ल..इस कोरोना पीरियड में संजीवनी की तरह ।
लुप्त हो जाते हें जब इस रात के बोझिल पहर.
जवाब देंहटाएंमंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर .
बहुत अपनी सी लगी ग़ज़ल की शुरुआत..बचपन की याद आ गई जहाँ मंदिरों की घंटियों के साथ पढ़ने बैठ जाया करते थे .सदा की तरह अति उत्तम सृजन.
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर..... वाह! अद्भुत!!!
जवाब देंहटाएंहम में से कोई शिव नहीं दिगंबर जी। बहुत ही असरदार ग़ज़ल है आपकी जिसका एक-एक शेर मानीखेज़ है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब मान्यवर क्या गज़ल है 'शिव कहाँ जो जीत लूंगा मृत्यु को'
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत कोमल भावों को शब्दों में पिरोया है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल ,सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण !!
जवाब देंहटाएंशब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
जवाब देंहटाएंतुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.
इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.
वाह !! अद्भुत,एक से बढ़कर एक शेर,आपको सत-सत नमन
बेमिसाल, बेहतरीन आपकी ग़ज़लों का सानी नहीं।
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब।
धूप नंगे सर उतर आती है छत पर जब कभी,
जवाब देंहटाएंतब सुलग उठता है घर आँगन गली, सहरा दहर.
शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.
इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.---वाह...बहुत ही गहराई से हालात को व्यक्त कर दिया आपने।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसच में बांसुरी की तान सी मीठी और सुन्दर भी । सत्य-सा...
जवाब देंहटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंपूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
जवाब देंहटाएंप्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
यही तो जीवन है। बहुत सुंदर कहा है दिगंबर जी।
बहुत ख़ूब... एक एक शेर लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंशाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
जवाब देंहटाएंगेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर.
वाह!!!
श्याम की लीला है शाम की लाली !!!गेरुए साँझ का बहुत ही सुन्दर चित्रण...।
पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
एक से बढ़कर एक शेर.... बहुत ही लाजवाब गजल।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंशाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
जवाब देंहटाएंगेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर....
ये तो अपनी तरह का अलग ही शेर है, खूबसूरत कल्पना है।
अंतिम दोनों शेर भी बहुत खूब बने हैं।
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