स्वप्न मेरे: शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर ...

मंगलवार, 4 मई 2021

शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर ...

लुप्त हो जाते हें जब इस रात के बोझिल पहर.
मंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर.


शाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
गेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर.
 
पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
 
एक पल पर्दा उठा, नज़रें मिलीं, उफ़ क्या मिलीं,
हो वही बस एक पल फिर जिंदगी जाए ठहर. 
 
धूप नंगे सर उतर आती है छत पर जब कभी,
तब सुलग उठता है घर आँगन गली, सहरा दहर.
 
शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.
 
इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.

27 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
    प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.

    प्रेम की लहर निरंतर उठती रहनी चाहिए ... खूबसूरत ग़ज़ल

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  2. बहुत सुंदर गजल, दिगम्बर भाई।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुघवार 05 मई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. ह‍िंंदी में ग़जल ...वाह क्या खूब कहा है नासवा जी आपने क‍ि ''मंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर.'' देश औश्र समाज को एक धागे में समेट द‍िया आपने

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  5. इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
    शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.
    ...बेहतरीन पंक्तियाँ आदरणीय नसवा साहब।

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  6. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -5-21) को "शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर "(चर्चा अंक 4057) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  7. शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
    तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.

    इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
    शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर...बहुत सुंदर अल्फाजों में सजी नायाब गज़ल..इस कोरोना पीरियड में संजीवनी की तरह ।

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  8. लुप्त हो जाते हें जब इस रात के बोझिल पहर.
    मंदिरों की घंटियों के साथ आती है सहर .
    बहुत अपनी सी लगी ग़ज़ल की शुरुआत..बचपन की याद आ गई जहाँ मंदिरों की घंटियों के साथ पढ़ने बैठ जाया करते थे .सदा की तरह अति उत्तम सृजन.

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  9. शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर..... वाह! अद्भुत!!!

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  10. हम में से कोई शिव नहीं दिगंबर जी। बहुत ही असरदार ग़ज़ल है आपकी जिसका एक-एक शेर मानीखेज़ है।

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  11. बहुत खूब मान्यवर क्या गज़ल है 'शिव कहाँ जो जीत लूंगा मृत्यु को'

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  12. वाह ! बहुत कोमल भावों को शब्दों में पिरोया है

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  13. बहुत सुन्दर ग़ज़ल ,सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण !!

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  14. शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
    तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.

    इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
    शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.

    वाह !! अद्भुत,एक से बढ़कर एक शेर,आपको सत-सत नमन

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  15. बेमिसाल, बेहतरीन आपकी ग़ज़लों का सानी नहीं।
    हर शेर लाजवाब।

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  16. धूप नंगे सर उतर आती है छत पर जब कभी,
    तब सुलग उठता है घर आँगन गली, सहरा दहर.

    शब्द जैसे बांसुरी की तान मीठी सी कहीं,
    तुम कहो सुनता रहूँगा, काफिया हो, क्या बहर.

    इस विरह की वेदना तो प्राण हर लेगी मेरे,
    शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर.---वाह...बहुत ही गहराई से हालात को व्यक्त कर दिया आपने।

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  17. सच में बांसुरी की तान सी मीठी और सुन्दर भी । सत्य-सा...

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  18. पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
    प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.

    यही तो जीवन है। बहुत सुंदर कहा है दिगंबर जी।

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  19. शाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
    गेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर.
    वाह!!!
    श्याम की लीला है शाम की लाली !!!गेरुए साँझ का बहुत ही सुन्दर चित्रण...।

    पूर्णिमा का चाँद हो के हो अमावस की निशा,
    प्रेम के सागर में उठती है निरंतर इक लहर.
    एक से बढ़कर एक शेर.... बहुत ही लाजवाब गजल।

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  20. शाम की लाली है या फिर श्याम की लीला कोई,
    गेरुए से वस्त्र ओढ़े लग रहा है ये शहर....
    ये तो अपनी तरह का अलग ही शेर है, खूबसूरत कल्पना है।
    अंतिम दोनों शेर भी बहुत खूब बने हैं।

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