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सोमवार, 5 अक्टूबर 2020
सोमवार, 20 नवंबर 2017
हम तरक्की के सौपान चढ़ते रहे ...
हम बुज़ुर्गों के चरणों में झुकते रहे
पद प्रतिष्ठा के संजोग बनते रहे
वो समुंदर में डूबेंगे हर हाल में
नाव कागज़ की ले के जो चलते रहे
इसलिए बढ़ गईं उनकी बदमाशियाँ
हम गुनाहों को बच्चों के ढकते रहे
आश्की और फकीरी खुदा का करम
डूब कर ज़िन्दगी में उभरते रहे
धूप बारिश हवा सब से महरूम हैं
फूल घर के ही अंदर जो खिलते रहे
साल के दो दिनों को मुक़र्रर किया
देश भक्ति के गीतों को सुनते रहे
दोस्तों की दुआओं में कुछ था असर
हम तरक्की के सौपान चढ़ते रहे
बुधवार, 20 अप्रैल 2016
ज़िंदगी में इस कदर बड़े हुए ...
चोट खाई गिर पड़े खड़े हुए
ज़िंदगी में इस कदर बड़े हुए
दर्द दे रहे हैं अपने क्या करूं
तिनके हैं जो दांत में अड़े हुए
उनको कौन पूछता है फूल जो
आँधियों की मार से झड़े हुए
दौर है बदल गए बुज़ुर्ग अब
घर की चारपाई में पड़े हुए
तुम कभी तो देख लेते आइना
हम तुम्हारी नाथ में हैं जड़े हुए
मत कुरेदिए हमारे ज़ख्म को
कुछ पुराने दर्द हैं गड़े हुए
ज़िंदगी में इस कदर बड़े हुए
दर्द दे रहे हैं अपने क्या करूं
तिनके हैं जो दांत में अड़े हुए
उनको कौन पूछता है फूल जो
आँधियों की मार से झड़े हुए
दौर है बदल गए बुज़ुर्ग अब
घर की चारपाई में पड़े हुए
तुम कभी तो देख लेते आइना
हम तुम्हारी नाथ में हैं जड़े हुए
मत कुरेदिए हमारे ज़ख्म को
कुछ पुराने दर्द हैं गड़े हुए
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