हम बुज़ुर्गों के चरणों में झुकते रहे
पद प्रतिष्ठा के संजोग बनते रहे
वो समुंदर में डूबेंगे हर हाल में
नाव कागज़ की ले के जो चलते रहे
इसलिए बढ़ गईं उनकी बदमाशियाँ
हम गुनाहों को बच्चों के ढकते रहे
आश्की और फकीरी खुदा का करम
डूब कर ज़िन्दगी में उभरते रहे
धूप बारिश हवा सब से महरूम हैं
फूल घर के ही अंदर जो खिलते रहे
साल के दो दिनों को मुक़र्रर किया
देश भक्ति के गीतों को सुनते रहे
दोस्तों की दुआओं में कुछ था असर
हम तरक्की के सौपान चढ़ते रहे
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