सुलगते ख्वाब ... कुनमुनाती धूप में लहराता आँचल ... तल की
गहराइयों में हिलोरें लेती प्रेम की सरगम ... सतरंगी मौसम के साथ साँसों में घुलती
मोंगरे की गंध ... क्या यही सब प्रेम के गहरे रिश्ते की पहचान है ... या इनसे भी
कुछ इतर ... कोई जंगली गुलाब ...
झर गई दीवारें
खिड़की दरवाजों के किस्से हवा हुए
मिट्टी मिट्टी आंगन धूल में तब्दील हो गया
पर अभी सूखा नहीं कोने में लगा बबूल
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
अनगिनत यादों के काफिले गुज़र गए इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
जाने कब छिल गयी घर जाने वाली सड़क की बजरी
पर बाकी है, धूल उड़ाती पगडण्डी अभी
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
कुछ मरे हुवे लम्हों की रखवाली में
मेरे नाम लिखा टूटा पत्थर भी ले रहा है सांसें
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
कई दिनों बाद इधर से गुज़रते हुए सोच रहा हूँ
हिसाब कर लूं वक़्त के साथ
जाने कब वक़्त छोड़ जाए, वक़्त का साथ
फिर उस जंगली गुलाब को भी तो साथ लेना है
खिल रहा है जो मेरी इंतज़ार में ...
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