वो एक ऐहसास था प्रेम का जिसकी कहानी है ये ... जाने किस
लम्हे शुरू हो के कहाँ तक पहुंची ... क्या साँसें बाकी हैं इस कहानी में ... हाँ ... क्या क्या कहा नहीं ... तो फिर इंतज़ार क्यों ... 
हालांकि छंट गई है तन्हाई की धुंध 
समय के साथ ताज़ा धूप भी उगने लगी है  
पर निकलने लगे हैं यादों के नुकीले पत्थर 
जहाँ पे कुछ हसीन लम्हों की इब्तदा हुई थी 
गुलाम अली की गज़लों से शुरू सिलसिला 
शेक्सपीयर के नाटकों से होता हुवा 
साम्यवाद के नारों के बीच 
समाजवाद की गलियों से गुज़रता 
गुलज़ार की नज्मों में उतर आया था 
खादी के सफ़ेद कुर्ते ओर नीली जीन के अलावा   
तुम कुछ पहनने भी नहीं देतीं थीं उन दिनों 
मेरी बढ़ी हुई दाड़ी ओर मोटे फ्रेम वाले चश्में में 
पता नहीं किसको ढूँढती थीं
पढ़ते पढ़ते जब कभी तुम्हें देखता   
दांतों में पेन दबाए मासूम चेहरे को देखता रहता      
नज़रें मिलने पर तुम ऐसे घबरातीं 
जैसे कोई चोरी पकड़ी गई   
फिर अचानक मेरा माथा चूम 
कमरे से बाहर
जब ज़ोर ज़ोर से हंसती 
तो आते जातों की नज़रों में 
अनगिनत सवाल नज़र आते थे मुझे 
मैं तो उन दिनों समझ ही नहीं पाता था 
ये प्यार है के कुछ ओर ...
हालांकि मैंने ... दीन दुनिया से बेखबर 
सब कुछ बहुत पहले से ही तुम्हारे नाम कर दिया था
फिर वक़्त ने करवट बदली 
रोज़ रोज़ का सिलसिला हफ़्तों और महीनों में बदलने लगा 
एक जीन ओर कुछ खादी के कुर्तों के सहारे 
मैंने तो जिंदगी जीने का निश्चय कर ही लिया था 
पर शायद तुम हालात का सामना नहीं कर सकीं 
तुम्हारे चले जाने के बाद वो तमाम रास्ते 
नागफनी से चुभने लगे थे 
 
रुके हुवे लम्हों की नमी में काई सी जमने लगी थी 
अजीब सी बैचैनी से दम घुटने लगा था 
खुद को हालात के सहारे छोड़ने से बैहतर 
कोई ओर रास्ता नज़र नहीं आया था मुझे 
धीरे धीरे वक़्त के थपेड़ों ने 
दर्द के एहसास में खुश रहने का ढब समझा दिया  
मुद्दत बाद आज फिर 
उम्र के इस मुकाम पे वक़्त की इस बे-वक्त करवट ने 
तेरे शहर की दहलीज पे ला पटका है 
तेरी यादों के नुकीले पत्थर दर्द तो दे रहे हैं 
पर आज धूप की चुभन 
पुराने लम्हों का एहसास लिए 
मीठी ठंडक का एहसास दे रही है
क्या तुम भी गुज़रती हो कभी इन लम्हों के करीब से