भूल जाओ इसे रख के पाताल में.
जीत ख़रगोश की हो या कछुए की हो,
फ़र्क़ होता है दोनों की पर चाल में.
धर्म, दौलत, नियंत्रण, ये सत्ता, नशा,
सब फ़रेबी हैं आना न तुम चाल में.
रिश्ते-नाते, मुहब्बत, ये बन्धन, वचन,
मौज लोगे न आओगे गर जाल में.
आप चाहें न चाहें ये बस में नहीं,
मिल ही जाएँगे कंकड़ हर इक दाल में.
अल-सुबह उठ के गुलशन में आए हो क्यूँ,
फूल खिलने लगे हैं हर इक डाल में.
तैरना-डूबना तो है सब को यहाँ,
जब उतरना हैं जीवन के इस ताल में.
साल-दर-साल आता है मुड़-मुड़ के कुछ,
उम्र मुड़ के न आएगी पर साल में.
सुन्दर
जवाब देंहटाएंतैरना-डूबना तो है सब को यहाँ,
जवाब देंहटाएंजब उतरना हैं जीवन के इस ताल में.
वाह क्या बात है...👌👌👌
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 29 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर,आलोक सिन्हा
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
जवाब देंहटाएंज्ञानी बाबा की जय हो! परनाम स्वीकार करें!
जवाब देंहटाएंhttps://www.swapnmere.in/2025/02/blog-post_26.html इस रचना के संदर्भ में कुछ प्रेषित किया है। कृपया email खंगाल लेवें!
परनाम पुनः स्वीकार करें! लिखते रहें!
सच में, हर साल में कुछ कुछ तो पिछले साल जैसा होता है मगर उम्र ही पिछले साल वाली नहीं होती !
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत खूब और असरदार रचना
हमेशा की तरह एक ह्रदयस्पर्शी प्रस्तुति दिगम्बर ji 🙏🌹🌹
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