चार दीवारें, पलंग और कुछ बक्से
ठिठोली और झगड़ों के बीच
ना ख़त्म होने वाली ढेर सारी बातों ने
कब ज़हन को गुदगुदाना बंद किया, नहीं पता
तमाम शक्लें, जो मुद्दतों हम-सफ़र रहीं
कब पोटली से गिरीं ... जान नहीं पाया
छोटी-छोटी कितनी ही बे-तरतीब चीजों का खज़ाना
क्यों और किस मोड़ पर बिखरा
समझना मुश्किल है आज
छोटा सा हसीन ख्वाब
जो ठंडी हवा के झौंके के साथ पल्लवित हुआ
कब किस रिक्शे पर छूटा, क्या पता
याद रही तो बस दूसरे से आगे निकल जाने को होड़
सब कुछ पा लेने की जंग ...
एक ऐसे आशियाने की चाह
जहाँ दफ़न हो सके जिस्म से जुड़ी हर याद
जहाँ सुनाई न दे रिश्तों के टूटने की गूँज
पूछता हूँ अपने आप से
अब तो खुश हूँ ... अपने आशियाने में ...
वाह
जवाब देंहटाएंसच बताउं तो नासवा जी,
जवाब देंहटाएंपहली चार पंक्तियों ने ही जकड़ लिया था मुझे बहुत देर तक
मैं हर एक पंक्ति से रिलेट कर पा रहा था.
लिखने की ऐसी कला एक सुलझे हुए व्यक्तित्व में होती है और एक इमानदार कवी में होती है.
ग़जब ग़जब और ग़जब.
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
मैं काफी दिनों बाद ब्लॉग पर आया और आना सफल हो गया.
पधारें- तुम हो तो हूँ
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 25 फरवरी 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंजो निकट होता है, हाथ में होता है, कब ऊब जाता है मन उससे पता ही नहीं चलता, अनजान की खोज में चल पड़ता है आदमी अपनों से दूर, देश से दूर और फिर सोचता है तन्हाई में, क्या पाया, क्या खोया
जवाब देंहटाएंजीवन के सफर की सच्चाई बयां कर दी आपने। सच्ची और अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजीवन का सच .....बहुत खूब दिगंबर जी !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन 🙏
जवाब देंहटाएंछोटा सा हसीन ख्वाब
जवाब देंहटाएंजो ठंडी हवा के झौंके के साथ पल्लवित हुआ
कब किस रिक्शे पर छूटा, क्या पता.
सुन्दर रचना आदरणीय .
पूछता हूँ अपने आप से
जवाब देंहटाएंअब तो खुश हूँ ... अपने आशियाने में ...
खुशी दिखी नहीं इसलिए पूछना पड़ा खुद ही...
ये अपना आशियाना बस खुद का मेहनताना है ..प्रमाण अपनी जीवन भर की मेहनत का...इसमें भला खुशी कहाँ...? जिसकी दीवारों के कोने कोने हमारी मेहनत से थके थके हैं ।
लाजवाब सृजन ।
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना - साधुवाद
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