साहिल की भीगी रेत से लहरों की गुफ़्तगू.
सुन कर भी कौन सुनता है बहरों की गुफ़्तगू.
कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.
अब आफ़ताब का भी निकलना मुहाल है,
इन बादलों से हो गई कुहरों की गुफ़्तगू.
ख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
फ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
कितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
लाजवाब
जवाब देंहटाएंगुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
जवाब देंहटाएंचेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
वाह बहुत खूब
ख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
जवाब देंहटाएंफ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
बहुत खूब ! अत्यंत सुन्दर कृति ।
बहुत बहुत सुन्दर बढ़िया गजल मुश्किल काफियों को निभाते हुए । बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएं।
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
जवाब देंहटाएंचेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
बहुत खूब,एक-एक शेर लाज़बाब,सादर नमन आपको
बहुत खूब नासवा जी, कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
जवाब देंहटाएंखेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू....ये गुफ़्तगू ज़िंदगी की सारी जद्दोजहद को अपने कितनी आसानी से बयां कर दिया। वाह
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंयहाँ बस डूब जाना होता है । बस सुखद अहसास ... डूबते हुए ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 1 सितंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
जवाब देंहटाएंफ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
कितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
बहुत सुंदर...
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
जवाब देंहटाएंकितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
आज के समय की हकीकत बयां करती नायाब गजल । हर शेर कुछ न कुछ संदेश दे रहा ।
वाह!लाजवाब।
जवाब देंहटाएंकुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू... वाह!
बहुत सुन्दर, लाजवाब
जवाब देंहटाएंवाह...'फुरकत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू'बहुत खूब...।
जवाब देंहटाएंकुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
जवाब देंहटाएंखेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.
वाह ! एक से बढ़कर एक शेर ! बधाई !
कितनी गहन बातें हैं इन अबोले लेखन की गुफ़्तग़ू ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब /बेमिसाल ।।
एहसासों से भरी होती हैं आपकी बातें
जवाब देंहटाएंयहाँ आकर होती है गज़लों से गुफ़्तगू ।
👌👌👌👌👌👌👌
बहुत सुंदर गजल,दिगम्बर भाई।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत उम्दा अंदाज़।
जवाब देंहटाएंगुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
जवाब देंहटाएंचेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
. बहुत खूब!
कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
जवाब देंहटाएंखेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.
वाह!!!
अब आफ़ताब का भी निकलना मुहाल है,
इन बादलों से हो गई कुहरों की गुफ़्तगू.
क्या बात...बहुत ही लाजवाब
एक से बढ़कर एक..।
इसे बार बार पढ़ना अच्छा लग रहा है।
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब।
वाह! बहुत उम्दा।
जवाब देंहटाएंख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
जवाब देंहटाएंफ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
उम्दा सृजन
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जवाब देंहटाएंइंटरनेट का आविष्कार किसने किया ?
वाह-वाह। हर शेर लाजवाब।
जवाब देंहटाएंआदरणीय दिगम्बर नासवा जी नमस्कार।
जवाब देंहटाएंबेहतर समझें तो यह रचना हमारी पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ के अगले अंक के लिए प्रेषित कीजिएगा। साथ ही संक्षिप्त परिचय और अपना फोटोग्राफ भी। आभार आपका।
Prakriti Darshan
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mob/whatsapp- 8191903651
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
जवाब देंहटाएंचेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
क्या लाजवाब शब्दों की माला गूंथते हैं आप !! बहुत ही सुन्दर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ दिसंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंसादर नमन
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
जवाब देंहटाएंकितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
खूबसूरत ग़ज़ल
नव वर्ष की शुभकामनाएँ
6623A4F1C9
जवाब देंहटाएंkiralık hacker
hacker arıyorum
kiralık hacker
hacker arıyorum
belek