शाम आ सके न वो सहर में आ सके
दर्द फिर कभी न रह-गुज़र में आ सके
कायनात प्रेम से सजा दो इस कदर
लौट के वो शख्स अपने घर में आ सके
जिक्र है हमारा महफ़िलों में आज भी
पर कभी न आपकी नज़र में आ सके
दो ही आंसुओं ने डाल दी थी बेड़ियाँ
फिर कभी न लौट के सफ़र में आ सके
हद से बढ़ गई थी बेरुखी जनाब की
इसलिए न अपने हम शहर में आ सके
मर मिटे जो सिरफिरे वतन की आन पर
सुर्ख़ियों में ना कभी खबर में आ सके
दर्द फिर कभी न रह-गुज़र में आ सके
कायनात प्रेम से सजा दो इस कदर
लौट के वो शख्स अपने घर में आ सके
जिक्र है हमारा महफ़िलों में आज भी
पर कभी न आपकी नज़र में आ सके
दो ही आंसुओं ने डाल दी थी बेड़ियाँ
फिर कभी न लौट के सफ़र में आ सके
हद से बढ़ गई थी बेरुखी जनाब की
इसलिए न अपने हम शहर में आ सके
मर मिटे जो सिरफिरे वतन की आन पर
सुर्ख़ियों में ना कभी खबर में आ सके
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