गज़लों के लम्बे दौर से बाहर आने की छटपटाहट हो रही थी ... सोचा नए साल के बहाने फिर से कविताओं के दौर में लौट चलूँ ... उम्मीद है आप सबका स्नेह यूँ ही बना रहेगा ...
तुम्हें सामने खड़ा करके बुलवाता हूँ कुछ प्रश्न तुमसे ... फिर
देता हूँ जवाब खुद को खुद के ही प्रश्नों का ... हालांकि बेचैनी है की बनी
रहती है फिर भी ... अजीब सी रेस्टलेसनेस ... आठों पहर ...
क्यों डूबे रहते हो यादों में ... ?
क्या करूं
समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
(तुम उदासी ओढ़े चुप हो जाती
हो, जवाब सुनने के बाद)
अच्छा ऐसा करो वापस आ जाओ मेरे पास
यादें खत्म हो जाएंगी खुद-ब-खुद
(क्या कहती हो ... संभव नहीं ...)
चलो ऐसा करो
पतझड़ के पत्तों की तरह
जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
मुझे भी सिखा दो
ताज़ा हवा के झोंके नहीं आते मेरे करीब
मुलाकात का सिलसिला जब आदत बन गया
तमाम रोशनदान बंद हो गए थे
सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब
रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
पर रौशनी कम नहीं होती
यादों के जुगनू जो जगमगाते पूरी रात
मालुम है मुझे शराब ओर तुम्हारी मदहोशी का नशा
टूटने के बाद तकलीफ देगा
पर क्या करूं
शिद्दत कम नहीं होती ...
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