क्या हर युग में
एकलव्य को देना होगा अंगूठे का दान ..?
शिक्षक की राजनीति का
रखना होगा मान ..?
झूठी परंपरा का
करना होगा सम्मान ..?
रिस्ते हुवे अंगूठे का बोझ
द्रोण ने उठा लिया
शिक्षा का व्यवसायिक करण
भीष्म ने निभा लिया
पर साक्षी है इतिहास
व्यवस्था के अन्याय का
शिक्षा के व्यवसाय का
गीता के अध्याय का
कृष्ण के न्याय का
शिक्षक से ज़्यादा
कौन समझता है
बीते हुवे कल का इतिहास
सही और ग़लत का गणित
भौतिक इच्छाओं का अर्थशास्त्र
झूठे अहम का मनोविज्ञान
अनगिनत परंपराओं की भीड़ में
क्या संभव है
इस परंपरा का अंत ...
सोमवार, 30 अगस्त 2010
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
मैं नही चाहता ...
नही मैं नही चाहता
नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
जहाँ धुएं का विस्तार खुद को समेटने नही देता
जहाँ हर दूसरा तारा
तेज़ चमकने कि होड़ में लुप्त हो जाता है
पैर टिकाने कि कोशिश में
दूसरे का सिर कुचल जाता है
जहाँ सिक्कों का शोर बहरा कर दे
खुद का अस्तित्व बोना हो जाए
संवेदनहीन दीवारों में धड़कन खो जाए
तेरे हाथों की खुश्बू
" सिक्योरिटी चैक" कर के आए
अम्मा के हाथों से बनी रोटी
पिज़्ज़ा बर्गर से शरमाये
जहाँ अंतस का चुंबकीय तेज महत्व हीन हो जाए
बचपन की यादों पर पहरा लग जाए
टुकड़ों में बँटा मेरा अस्तित्व
कोट और पैंट में फँस जाए
मैं नही चाहता
हाँ मैं नही चाहता
उस नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
जहाँ धुएं का विस्तार खुद को समेटने नही देता
जहाँ हर दूसरा तारा
तेज़ चमकने कि होड़ में लुप्त हो जाता है
पैर टिकाने कि कोशिश में
दूसरे का सिर कुचल जाता है
जहाँ सिक्कों का शोर बहरा कर दे
खुद का अस्तित्व बोना हो जाए
संवेदनहीन दीवारों में धड़कन खो जाए
तेरे हाथों की खुश्बू
" सिक्योरिटी चैक" कर के आए
अम्मा के हाथों से बनी रोटी
पिज़्ज़ा बर्गर से शरमाये
जहाँ अंतस का चुंबकीय तेज महत्व हीन हो जाए
बचपन की यादों पर पहरा लग जाए
टुकड़ों में बँटा मेरा अस्तित्व
कोट और पैंट में फँस जाए
मैं नही चाहता
हाँ मैं नही चाहता
उस नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
जांना ...
जांना ..
सुन मेरी जांना ..
अक्सर तेरे स्पर्श के बाद
में जाग नही पाता
और सच पूछो
तो सो भी नही पाता
सोया होता हूँ
तो चेतन रहता हूँ
चेतन में सम्मोहित रहता हूँ
तेरि मोहिनी
मुझे पाश में लिए रहती है
साँसों के साथ तेरी खुश्बू
मेरे जिस्म में समा जाती है
जब कभी मैं स्वयं से
स्वयं का परिचय पूछता हूँ
तू चुपके से मेरे सामने आ जाती है...
सुन मेरी जांना ..
अक्सर तेरे स्पर्श के बाद
में जाग नही पाता
और सच पूछो
तो सो भी नही पाता
सोया होता हूँ
तो चेतन रहता हूँ
चेतन में सम्मोहित रहता हूँ
तेरि मोहिनी
मुझे पाश में लिए रहती है
साँसों के साथ तेरी खुश्बू
मेरे जिस्म में समा जाती है
जब कभी मैं स्वयं से
स्वयं का परिचय पूछता हूँ
तू चुपके से मेरे सामने आ जाती है...
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
धरती
परंपराओं में बँधी
दधीचि सी उदार
नियमों में बँधी
जिस्मानी उर्वारा ढोने को लाचार
बेबस धरती की कोख
ना चाहते हुवे
कायर आवारा बीज को
पनाह की मजबूरी
अनवरत सींचने की कुंठा
निर्माण का बोझ
पालने का त्रास
अथाह पीड़ा में
जन्म देने की लाचारी
अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
प्राकृति का कैसा खेल
धरती का कैसा धर्म ....
दधीचि सी उदार
नियमों में बँधी
जिस्मानी उर्वारा ढोने को लाचार
बेबस धरती की कोख
ना चाहते हुवे
कायर आवारा बीज को
पनाह की मजबूरी
अनवरत सींचने की कुंठा
निर्माण का बोझ
पालने का त्रास
अथाह पीड़ा में
जन्म देने की लाचारी
अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
प्राकृति का कैसा खेल
धरती का कैसा धर्म ....
बुधवार, 7 जुलाई 2010
आवारा यादें ...
खोखले जिस्म में साँस लेतीं
कुछ ज़ख्मी यादें
कुछ लहुलुहान ख्वाब
जागती करवटों में गुज़री अधूरी रातें
जिस्म की ठंडक से चटके लम्हे
पसीने से नहाई चादर में लिपटा सन्नाटों का शोर
कुछ उबलते शब्दों की अंतहीन बहस
खून से रंगी चूड़ियों कि किरचें
कमीज़ पर पड़े कुछ ताज़ा जख्म के निशान
दिल के किसी कोने में
धूल के नीचे दबी
आवारा देह कि मादक गंध
कुछ हसीन लम्हों की तपिश
महकते लोबान का अधूरा नशा
गर्म साँसों का पिघलता लावा
उम्र के ढलते पड़ाव पर
कुछ ऐसे लम्हों के भूत
चुड़ेली यादें
जिस्म के खंडहर में जवान होती हैं
वक़्त के हाथों मरहम लगे जख्म कुरेदती हैं
ताज़ा तरीन रखती हैं
शुरू होता है न ख़त्म होने वाला
लंबे दर्द का सिलसिला
पर अब दर्द में
दर्द का एहसास नही होता ...
कुछ ज़ख्मी यादें
कुछ लहुलुहान ख्वाब
जागती करवटों में गुज़री अधूरी रातें
जिस्म की ठंडक से चटके लम्हे
पसीने से नहाई चादर में लिपटा सन्नाटों का शोर
कुछ उबलते शब्दों की अंतहीन बहस
खून से रंगी चूड़ियों कि किरचें
कमीज़ पर पड़े कुछ ताज़ा जख्म के निशान
दिल के किसी कोने में
धूल के नीचे दबी
आवारा देह कि मादक गंध
कुछ हसीन लम्हों की तपिश
महकते लोबान का अधूरा नशा
गर्म साँसों का पिघलता लावा
उम्र के ढलते पड़ाव पर
कुछ ऐसे लम्हों के भूत
चुड़ेली यादें
जिस्म के खंडहर में जवान होती हैं
वक़्त के हाथों मरहम लगे जख्म कुरेदती हैं
ताज़ा तरीन रखती हैं
शुरू होता है न ख़त्म होने वाला
लंबे दर्द का सिलसिला
पर अब दर्द में
दर्द का एहसास नही होता ...
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