स्वप्न मेरे

सोमवार, 11 जून 2012

खत ...


तेरी यादों से पीछा छुड़ाने के बाद
और नींद की आगोश में जाने से पहले
न जाने रात के कौन से पहर
तेरे हाथों लिखे खत  
खुदबखुद दराज से निकलने लगते हैं  

कागज़ के परे  
एहसास की चासनी में लिपटे शब्द
और धूल में तब्दील होते उनके अर्थ
चिपक जाते हैं बीमार बिस्तर से

लगातार खांसने के बावजूद तेरे अस्तित्व की धसक
सासें रोकने लगती है   
लंबी होती तेरी परछाई
वजूद पे अँधेरे की चादर तान देती है  

यहां वहां बिखरे कागज़
सच या सपने का फर्क ढूँढने नहीं देते
सुबह दिवार से लटकी मजबूरियां और तेरे खतों के साथ  
बिस्तर से लिपटी धूल  
गली के नुक्कड़ पे झाड़ आता हूं
उन कोरे कागजों में रोज आग लगाता हूं

पर कमबख्त तेरे ये खत
खत्म होने का नाम नहीं लेते ...

रविवार, 3 जून 2012

अम्मा ...


छुपा कर बेटे बहु से
वो आज भी सहेजती है
बासी अखबार
संभाल कर रखती है
पुरानी साडियां
जोड़ती रहती है
घर का टूटा सामान

सब से आँखों बचा कर
रोज देखती है खिडकी के बाहर
कान लगाये सुनती है
कुछ जानी पहचानी
कुछ अन्जानी सी आवाजें 

पर नहीं आती वो आवाज
जिसका रहता है इंतज़ार माँ को

“पुराने कपडे, पुराना सामान, रद्दी-अखबार दे दो
बदले में बर्तन ले लो”

इलाका तो वही है बरसों से
कुछ पडोसी भी वही हैं 
बस अम्मां समझ नहीं पाई
कब मोहल्ला शहर में तब्दील हो गया 

गुज़रती उम्र के साथ
अम्मा की आदत भी तो नहीं छूटती ... 

गुरुवार, 24 मई 2012

मेरी जाना ...


रोज सिरहाने के पास पड़ी होती है   
चाय की गर्म प्याली और ताज़ा अखबार 
याद नहीं पड़ता कब देखा 
माँ की दवाई और बापू के चश्मे से लेकर ...       
बच्चों के जेब खर्च और नंबरों का हिसाब 

पता नहीं कौन सी चाभी भरी रहती है तुम्हारे अंदर 

सबके उठने से पहले से लेकर 
सबके सो जाने के बाद तक  
हर आहट पे तुम्हें जागते देखा है 
सब्जी वाले से लेकर मांगने वाला तक 
तुम्हारे दरवाज़े पे दस्तक देता है  

सुबह से शाम तक  
तुम्हारी झुकी पलकें और दबे होठों के बीच छुपी मुस्कुराहट में   
न जाने कितने किरदार गुजर जाते हैं 
आँखों के सामने से  

मेरी जाना ... 
तुम्हारा प्यार जानने के लिए 
ज़रूरी नहीं तुम्हारी खामोशी को जुबां देना   
या आँखों में लिखी इबारत पढ़ना ...  

मंगलवार, 15 मई 2012

जीवन ...


जीने के लिए ज़रूरी नही
प्रेम की ऊर्जा 
रौशनी भरे ख्वाब

कुछ अनकही मजबूरियां भी  
टूटने नहीं देतीं
साँसों की डोर

यूं ही चलता रहता है ये सफर 
साँसों का क़र्ज़ उठाये
मौत की इंतज़ार में

जीवन इसको भी तो कहते है ... 

सोमवार, 7 मई 2012

सजीव कविता ...


गज़लों के दौर से निकल कर प्रस्तुत है एक कविता ... आशा है आपको पसंद आएगी

तुम कहती हो लिखो कोई कविता
मेरे पे ...
बस मेरे पे ...
 
और मैं सोचने लगता हूँ
क्या लिखूं
तुम पेबस तुम पे ...   

क्योंकि तुमको अपने से अलग तो कभी सोच ही नहीं पाया मैं
तो अपने आप पर लिखूं ...
पर कैसे ...

वैसे भी कुछ लिखने के लिए 
अतीत या भविष्य में उतरना होगा
कुछ पल के लिए ही सही
तुमसे दूर तो होना होगा

बताओ ...
क्या सह पाओगी ये दूरी ...

अपने आप पे कविता या कुछ पल की दूरी
कहो ... क्या है जरूरी ...

क्या अच्छा नहीं हम यूं ही जीते रहें ...
वर्तमान को संजोते रहें ...
ये भी तो इक कविता है समय के पंखों पे लिखी ...
हम दोनों की सजीव कविता ...