तेरी यादों से पीछा छुड़ाने के बाद
और नींद की आगोश में जाने से पहले
न जाने रात के कौन से पहर
तेरे हाथों लिखे खत
खुदबखुद दराज से निकलने लगते हैं
कागज़ के परे
एहसास की चासनी में लिपटे शब्द
और धूल में तब्दील होते उनके अर्थ
चिपक जाते हैं बीमार बिस्तर से
लगातार खांसने के बावजूद तेरे अस्तित्व की धसक
सासें रोकने लगती है
लंबी होती तेरी परछाई
वजूद पे अँधेरे की चादर तान देती है
यहां वहां बिखरे कागज़
सच या सपने का फर्क ढूँढने नहीं देते
सुबह दिवार से लटकी मजबूरियां और तेरे खतों के साथ
बिस्तर से लिपटी धूल
गली के नुक्कड़ पे झाड़ आता हूं
उन कोरे कागजों में रोज आग लगाता हूं
पर कमबख्त तेरे ये खत
खत्म होने का नाम नहीं लेते ...