आज फिर २५ सितम्बर है ... सोचता हूँ, तू आज होती तो पता नहीं कितनी कतरनें अखबार
की काट-काट के अपने पास रक्खी होतीं ... सब को फ़ोन कर-कर के सलाह देती रहती ये कर, वो कर ... ये न कर, वो न कर, बचाव रख करोना से ... सच कहूँ तो अब ये बातें बहुत याद आती हैं
... शायद पिछले आठ सालों में ... मैं भी तो बूढा हो रहा हूँ ... और फिर ... बच्चा
तो तभी रह पाता जो तू होती मेरे साथ ...
शाम होते ही अगरबत्ती जला देती है माँ.
घर के हर कोने को मन्दिर सा बना देती है माँ.
मुश्किलों को ज़िन्दगी में हँस के सहने का हुनर,
डट के डर का सामना करना सिखा देती है माँ .
जान जाती है बिना पूछे ही दिल का दर्द सब,
नीन्द कोसों दूर हो चाहे सुला देती है माँ.
आज भी जल्दी हो जाना, माँ से कह देता हूँ मैं,
वक़्त की पाबन्द है, मुझको उठा देती है माँ.
घर में नौकर भी है, पत्नी भी है, फिर भी आदतन,
रोज आटा गूंथ के सब्जी चढ़ा देती है माँ.
मुश्किलों को ज़िन्दगी में हँस के सहने का हुनर,
जवाब देंहटाएंडट के डर का सामना करना सिखा देती है माँ ..
माँ से जीवन में सम्पूर्णता रहती है उसका अभाव तो बचपन में भी इन्सान को बूढ़ा बना देता है । माँ के लिए भावभीनी रचना. अत्यंत सुन्दर..,
बहुत सुन्दर और मार्मिक।
जवाब देंहटाएंमाँ को नमन।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-०९-२०२०) को 'पिछले पन्ने की औरतें '(चर्चा अंक-३८३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
जान जाती है बिना पूछे ही दिल का दर्द सब,
जवाब देंहटाएंनीन्द कोसों दूर हो चाहे सुला देती है माँ.
हाँ, ऐसी ही होती है माँ, उसके दिल में सारी दुनिया समायी होती है फिर भी अपनी सन्तान का कोई गम उससे छुपा नहीं रह सकता, माँ की पावन स्मृति को नमन !
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंमाँ, माँ होती है। उनको हम एक पल के लिए भी भूक नही सकते। बहुत सुंदर दिल को छूती रचना।
जवाब देंहटाएंमुश्किलों को ज़िन्दगी में हँस के सहने का हुनर,
जवाब देंहटाएंडट के डर का सामना करना सिखा देती है माँ .
जान जाती है बिना पूछे ही दिल का दर्द सब,
नीन्द कोसों दूर हो चाहे सुला देती है माँ.
माँ की गोद में सिर रखते ही सारी मुश्किलें भूल जाते हैं वही बचपन लौट आता है और सकून की नींद भी...।
माँ पर बहुत ही भावपूर्ण लाजवाब सृजन।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत भावुक रचना।
जवाब देंहटाएंलाजवाब नासवा जी, मर्म को गहरे तक आडोलित करते शब्दों का गुंचा।
जवाब देंहटाएंशानदार।
सयानापन और बुढ़ापा, ये दोनों, माँ के जाने के बाद ही आते हैं.
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन कहूँ या दिल के सच्चे जज्बात...,"माँ" को भूलना आसान नहीं होता और भूलना भी नहीं चाहिए,माँ की पुण्यतिथि पर सत-सत नमन मेरा
जवाब देंहटाएं,सादर नमस्कार आपको
नमन है दिगम्बर जी आप को बहुत भावुक और बार बार पढ़ने के लायक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत भाग्यशाली होते हैं वो लोग जिन्हें माँ निडर होकर जीना सिखा देतीं हैं,आपकी इस भावपूर्ण रचना को मेरा सादर प्रणाम,
जवाब देंहटाएंवाह. माँ के स्वरूप पर आपके द्वारा लिखा गया साहित्य अपने आप में बेेजोड़ है.
जवाब देंहटाएंघर में नौकर भी है, पत्नी भी है, फिर भी आदतन,
रोज आटा गूंथ के सब्जी चढ़ा देती है माँ.
माँ घर की एक भरी-पूरी प्रक्रिया बन गई है. बहुत खूब.
बहुत ही प्रभावी और कहीं कहीं आँखों को गीले कर देने वाले शब्द हैं !!
जवाब देंहटाएंमां पर केंद्रित बेहतरीन ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंकृपया इस link पर अवश्य पधारें, इसमे आप भी शामिल हैं।....
http://ghazalyatra.blogspot.com/2020/09/blog-post_29.html?m=1
शाम होते ही अगरबत्ती जला देती है माँ.
जवाब देंहटाएंघर के हर कोने को मन्दिर सा बना देती है माँ.
वाह !!!
बहुत भावपूर्ण रचना !!!
मां को समर्पित इस ग़ज़ल के लिए आपको नमन !!!
बहुत सुंदर और शब्दश: सच! वाकई हम तब तक बच्चे ही रहते हैं जब तक हमारे मा पिता जीवित हैं, उनके जाते ही हम एकदम से बड़े और बूढ़े होने लगते हैं। आज मै जब घर मे अगरबत्ती जलाऊंगी, तो आपकी पंक्तियां याद आयेंगी, अब मैं भी किसी की मां हूँ! बहुत प्यारी रचना है। बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंमाँ..
जवाब देंहटाएंतू तो बडा बना कर चली गई! अब बरबस चले आते आंसुओं को किसके आंचल में छुपाऊं