रविवार, 18 दिसंबर 2022
मंगलवार, 13 दिसंबर 2022
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी ...
रात को कहना सुबह जब लौट के घर जाएगी.
एक प्याली चाय मेरे साथ पी कर जाएगी.
चाँद है मेरी मेरी बगल में पर मुझे यह खौफ़ है,
कार की खिड़की खुली तो चाँदनी डर जाएगी.
प्रेम सागर का नदी से इक फरेबी जाल है,
जानती है ना-समझ मिट जाएगी, पर जाएगी.
है बड़ा आसान इसको काट कर यूँ फैंकना,
ज़ख्म दिल को पर अंगूठी दे के बाहर जाएगी.
बादलों के झुण्ड जिस पल धूप को उलझायेंगे,
नींद उस पल छाँव बन कर आँख में भर जाएगी.
चल रही होगी समुन्दर में पिघलती शाम जब,
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी.
सोमवार, 5 दिसंबर 2022
विल्स ...
एक पुरानी विल्स
की सिगरेट जैसी है.
ख़ाकी फ्रौक में
लड़की सचमुच ऐसी है.
हंसी-ठिठोली, कूद-फाँद, ये मस्त-नज़र,
अस्त-व्यस्त सी
लड़की देखो कैसी है.
फ़ेस बनाता क्यों
है उस लड़की जैसे,
बादल अब तेरी तो
ऐसी-तैसी है.
सूरत, सीरत, आदत, अब क्या-क्या बोलूँ,
जैसी बाहर अंदर
बिलकुल वैसी है.
गहरा कश भर कर उस
दिन फिर भाग गई,
खौं-खौं करती
लड़की वाक़ई मैसी है.
बुधवार, 30 नवंबर 2022
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी ...
इस बात पे हैरान,
परेशान हैं हम भी.
क्यों अपने ही घर
तुम भी हो, मेहमन हैं हम भी.
माना के नहीं
ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी
बज़्म की पहचान हैं हम भी.
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
तुम चाँद की
मद्धम सी किरण ओढ़ के आना,
सूरज की खिली धूप
के परिधान हैं हम भी.
बाधाएँ तो आएँगी
न पथ रोक सकेंगी,
कर्तव्य के नव पथ
पे अनुष्ठान हैं हम भी.
आकाश, पवन, जल, में तो मिट्टी, में अगन में,
वेदों की ऋचाओं
में बसे ज्ञान हैं हम भी.
गर तुम जो अमलतास
की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान
के खलिहान हैं हम भी.
रविवार, 27 नवंबर 2022
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं ...
खुद के गुस्से में कहीं खुद ही न जल जाऊँ मैं.
छींट पानी की लगा दो के संभल जाऊँ में.
सामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया,
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं.
बीच सागर के डुबोनी है जो कश्ती तुमने,
ठीक ये होगा के साहिल पे फिसल जाऊँ मैं.
दूर उस पार पहाड़ी के कभी देखूँगा,
और थोड़ा सा ज़रा और उछल जाऊँ मैं.
मैं नहीं चाहता तू चाँद बने मैं सूरज,
वक़्त हो तेरे निकलने का तो ढल जाऊँ मैं.
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं.
खुद के ग़र साथ रहूँ तो है बदलना मुश्किल,
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं.
गुरुवार, 17 नवंबर 2022
ग़ज़ल …
गीली रेत पे सौंधी-सौंधी पुरवाई के कश भरते.
मफलर ओढ़े इश्क़ खड़ा है तन्हाई के कश भरते.
इश्क़ पका तो कच्ची-खट्टी-अम्बी भी महकी पल-पल,
पागल-पागल तितली झूमी अमराई के कश भरते.
शोर हुआ डब्बा, बस्ते, जूते, रिब्बन, चुन्नी, उछली,
पगडण्डी से बच्चे भागे तरुनाई के कश भरते.
सोचा डूब के उभरेंगे जब डूबेंगे इन आँखों में,
होले-होले डूब गए हम गहराई के कश भरते.
चाँद की चाहत या सागर के उन्मादीपन का मंज़र,
लहरों ने साहिल को चूमा रुसवाई के कश भरते.
बादल की जिद्द चाँद का धोखा कुछ सड़कों का सन्नाटा,
इन्डिया गेट पे वक़्त गुज़ारा हरजाई के कश भरते.
काश नज़र की चिट्ठी पर भी एक नज़र डाली होती,
होटों ने तो झूठ कहा था सच्चाई के कश भरते.
रविवार, 23 अक्तूबर 2022
दीपाली - फुलझड़ी ...
सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनायें ... कुछ नए दोहे अभी हाल ही में प्रकाशित पत्रिका “अनुभूति” के साथ ...
बच्चे, बूढ़े, चिर-युवा, हर आयू में ख़ास
भाँति-भाँति की फुलझड़ी, मिलती सब के पास
दीपों के त्योहार
में, फुलझड़ियों का जोर
बच्चों का तो ठीक
है, बड़े भी माँगे मोर
सरपट स्याही रात की, दौड़ी उल्टे पाँव
सजग फुलझड़ी आ गई, अंधियारे के गाँव
फुलझड़ियाँ केवल
नहीं, दीपोत्सव त्योहार
राम राज की कल्पना, एक समग्र विचार
टिम-टिम तारों सा
लगे फुलझड़ियों का रूप
ज्यों बादल की ओट
से झिलमिल-झिलमिल धूप
मर्यादा तोड़ी नहीं, राम गए वनवास
अवध पधारे लौट कर, प्रकट हुआ मधु-मास
फुलझड़ियों के नाम
पर, दीप-पर्व पर क्रोध
अधिक प्रदूषण हो
रहा, कह-कर करें विरोध
जगमग-जगमग फुलझड़ी, सुतली बंब घनघोर
चिटपिट-चिटपिट बज
उठीं, कुछ लड़ियाँ कमजोर
शुक्रवार, 30 सितंबर 2022
तुम आओ ...
बहुत चाहा शब्द गढ़ना
चाँदनी के सुर्ख गजरे ... सफ़ेद कागज़ पे उतारना
पर जाने क्यों अल्फाजों का कम्बल ओढ़े
हवा अटकी रही, हवा के
इर्द-गिर्द
पंछी सोते रहे
सूरज आसमान हो गया
ढल गए ख़याल, ढल जाती है दोपहर की धूप जैसे
रात का गहराता साया
खो गया अमावस की काली आग़ोश में
शब्दों ने नहीं खोले अपने मायने
खुरदरी मिटटी में नहीं पनपने पाया सृजन
तुम होती तो उतर आतीं मेरे अलफ़ाज़ बन कर
न होता तो रच देता तुम्हे नज़्म-दर-नज़्म
सुजाग हो जातीं केनवस की आड़ी-तिरछी लक़ीरें
मेरे जंगली गुलाब तुम आओ तो शुरू हो
कायनात का हसीन क़ारोबार ...
रविवार, 25 सितंबर 2022
माँ …
बीतते बीतते आज दस वर्ष हो गए, वर्ष बदलते रहे पर तारीख़ वही 25 सितम्बर … सच है जाने वाले याद रहते हैं मगर तारीख़ नहीं, परदेख आज की तारीख़ ऐसी है जो भूलती ही नहीं … तारीख़ ही क्यों, दिन, महीना, साल, कुछ भी नहीं भूलता … और तू … अब क्या कहूँ… मज़ा तो अब भी आता है तुझसे बात करने का … तुझे महसूस करने का …
माँ हक़ीक़त में तु मुझसे दूर है.
पर मेरी यादों में तेरा नूर है.
पहले तो माना नहीं था जो कहा,
लौट आ, कह फिर से, अब मंज़ूर है.
तू हमेशा दिल में रहती है मगर,
याद करना भी तो इक दस्तूर है.
रोक पाना था नहीं मुमकिन तुझे,
क्या करूँ अब दिल बड़ा मजबूर है.
तू मेरा संगीत, गुरु-बाणी, भजन,
तू मेरी वीणा, मेरा संतूर है.
तू ही गीता ज्ञान है मेरे लिए,
तू ही तो रसखान, मीरा, सूर है.
तू खुली आँखों से अब दिखती नहीं,
पर तेरी मौजूदगी भरपूर है.