कुनमुनी
धूप का एहसास
जब अनायास ही बदलने
लगे मौसम
समझ लेना दूर कहीं
यादों में
स्पर्श किया है
मैंने तुम्हारा
माथे पे गिरी एक
आवारा बूँद
जगाने लगे एक
अनजानी प्यास
समझ लेना तन्हाई के
किसी लम्हे ने
अंगड़ाई ली है कहीं
हर मौसम में खिलता
जंगली गुलाब
तेरे होंटों की
मुस्कुराहट लिए
महक रहा है पुरानी
पगडण्डी पर
चल आज वहीं टहल आएँ
…
जोड़ लें कुछ ताज़ा
लम्हे, यादों की बुगनी में …
#जंगली_गुलाब
मालुम है ले गया था तुम्हारे होठों की खिलखिलाती हँसी
वो खनकते कंगन, नीले आसमानी रँगों वाली काँच की चूड़ियाँ
वो टूटी पाजेब ... धागे के सहारे जिसे पांवों में अटका रखा था तुमने
हर वो शै जिसमें तुम्हारे होने का एहसास हो सकता था
मेरे ट्रंक में सहेज दी थी तुमने
अगर सही सही कहूँ ... तो ले आया था मैं उसे ...
मैं जानता था जुदाई का वो पल इक उम्र से लम्बा होने वाला है
पर सच कहूँ तो उस दौर में एक पल भी तुमसे जुदा नही था
हालांकि छोड़ आया था तुम्हे तन्हा सबके बीच यादों के सहारे
अब जबकि लौट रहा हूँ तुम्हारे करीब,
चाहता हूं तमान खुशियाँ समेत दूँ तुम्हारे दामन में ...
भर ली है लाल डिबिया में सुबह की लाली,
माँग सजाने के लिए
कैद कर ली ही बारिशों की बूँदों में नहाते परिंदों की खनकती
हँसी
माँग लिया है शाम का गहरा नीला आँचल,
रात की काली चादर पे चमकते तारे और इन्द्र-धनुष के सुनहरी रँग
ध्यान से देखना पूरब की और खुलने वाली खिड़की की जानिब
घिरने लगी होंगी कुछ आँधियाँ वहाँ ...
की भेजा है हवा के हाथ इक संदेसा तुम्हारे नाम
हाँ वो ढेर सारा प्यार भी इकठ्ठा है जो जोड़ रहा हूँ तबसे
जब जुदा हुए थे ज़िन्दगी के फ़र्ज़ पूरा करने को
मैं आउँगा छत के उसी सुनसान कोने में
खड़ी होगी जहाँ तुम होठ चबाती मेरे इंतज़ार में ...
#जंगली_गुलाब
जिन टेढ़े-मेढ़े रस्तों से गुजारते हैं चरवाहे
जहाँ की मेढों पे खिलते हैं गहरे लाल रंग के जंगली फूल
जहाँ धूप के साथ उतरती है कच्ची सरसों की खुशबू
उसी के पास खेतों से आती है चूडियों की खनक
और तुम्हारी हँसी की आवाज़ में घुलती पाजेब की धीमी छन-छन
रख दिए हैं ताज़ा बोसे उस पगडण्डी के ठीक बीचों बीच
जिसके एक कोने पे एक छत है और कुछ टूटी हुई दीवारें
मकान हो जाने की इंतज़ार में
गुज़र जाते हैं कुछ परिंदे भी उस पगडण्डी की रेत पर
छोड़ जाते हैं पन्जों के गहरे निशान
बूढ़े किसान की आशा नहीं देखती रेत का समुन्दर
और उसके आगे झिलमिलाता पानी का सैलाब
वो देखती है रेत के ठीक ऊपर दमकता काला बादल
रेत का सीना चीर के आती नमी का इंतज़ार है उसे
इंतज़ार तो मुझे भी है कुछ बूँदों का
उगे हुए हैं कुछ सूखे झाड़ बरसों से मेरे सूने आँगन में
फूल हो जाने की इंतज़ार में ...
गुज़र के गए हैं कुछ सैनिक अभी-अभी इस रस्ते से
भारी जूतों से धरती का सीना मसलते
सुना है आज़ाद करनी है सूखी मिट्टी, भूमि-पुत्रों से
लाल पट्टी सरों पे बांधे कर रहे हैं लाल जो सूखी धरती का आनन
कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को
लुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा
घास के तिनकों से बने हरे कंगन पहने हाथ
मचलते तो जरूर होंगे बन्दूक हो जाने की इंतज़ार में
प्रेम तो उन्हें भी होता होगा ... मेरी तरह
और प्रेम के फूल पनपने के लिए हवा पानी ज़रूरी तो नहीं
#जंगली_गुलाब
उस दिन आकाश में नहीं उगे तारे
तुम खड़ी रहीं बहुत देर तक उन्हें देखने की जिद्द में
तारों की जिद्द ... नहीं उगेंगे तुम्हारे सामने
नहीं करनी थी उन्हें बात तुम्हारे सामने
और नहीं मंज़ूर था उन्हें दिगंबर हो जाना
उठा देना किसी के आवारा प्रेम से पर्दा
तर्क करने वालों ने सोचा
शोलों से लपकती तुम्हारी रौशनी की ताब
धुंधला न कर दे उन तारों को
तर्क वाले कहां समझते हैं दिल की बातें, प्रेम का मकसद
जब उठने लगता है रात का गहरा आवरण
और तुम भी आ जाती हो कमरे के भीतर
शीतल चांदनी तले पनपने लगता है एहसास का मासूम बूटा
आज रात सोएँगे नहीं तारे
मौका मिले तो ज़रूर देख आना आसमान पर
जिद्द है उनकी मिट जाने की ... सुबह होने तक
#जंगली_गुलाब
खिड़की की चौखट पे बैठे
उदास परिंदों के प्रश्नों का जवाब किसी के पास नहीं होता
सायं-सायं करती आवारा हवाओं के पास तो बिलकुल नहीं
कहाँ होती है ठीक उसके जैसी वो दूसरी चिड़िया
घर बनाया था तिनका-तिनका जिसके साथ लचकती डाल पर
के मिल के देख लिए थे कुछ सपने सावन के मौसम में
आसान तो नहीं होता लम्हा-लम्हा तिनके कतरा-कतरा उम्र में उलझाना
हालाँकि सपनों की ताबीर उम्र में न हो तो नहीं होती मुकम्मल
ज़िन्दगी
पर आसान भी नहीं होता रहना फिर उसी घोंसले में
जहाँ बेहिसाब यादों के तिनके वक़्त के साथ शरीर को लहुलुहान करने
लगें
कितनी अजीब होती हैं यादें किसी भी बात से ट्रिगर हो जाती हैं
मेरे प्रश्नों का भी जवाब भी किसी के पास कहाँ होता है
प्रार्थना के कुछ शब्द
जो नहीं पहुँच पाते ईश्वर के पास
बिखर जाते हैं आस्था की कच्ची ज़मीन पर
धीरे धीरे उगने लगते हैं वहाँ कभी न सूखने वाले पेड़
सुना है प्रेम रहता है वहाँ खुशबू बन कर
वक़्त के साथ जब
उतरती हैं कलियाँ
तो जैसे तुम उतर आती हो ईश्वर का रूप ले कर
आँखें मुध्ने लगती हैं, हाथ खुद-ब-खुद उठ जाते हैं
उसे इबादत ... या जो चाहे नाम दे देना
खुशबू में तब्दील हो कर शब्द, उड़ते हैं कायनात में
मैं भी कुछ ओर तेरे करीब आने लगता हूँ
तू ही तू सर्वत्र ... तुझ में ईश्वर, ईश्वर में तू
उसकी माया, तेरा मोह, चेतन, अवचेतन
मैं ही शिव, मैं ही सुन्दर, एकम सत्य जगत का
जब तक नहीं पड़ती धूल आँखों में
एहसास नहीं होता
आती-जाती साँसों का एहसास भी तब तक नहीं
रुकने न लगे हवा जब तक
वैसे रात का एहसास भी रौशनी के जाने से नहीं
अंधेरे के आने से होता है
मैं जानता हूँ नहीं जुडी ऐसी कोई भी वजह तेरे एहसास के साथ
सिवाए इसके की मैं तुझे प्रेम करने के लिए पैदा हुआ हूँ
मेरे जंगली गुलाब तेरे होने का एहसास मेरी साँसों तक तो है न
...
#जंगली_गुलाब
ये दिन, ये शाम, ये रात, चाँद या
फिर ये सूरज
क्या सच में सब ढलते हैं या ढलती है उम्र
वैसे तो जाता नहीं ये रास्ता भी कहीं
हम ही चल के गुज़र जाते हैं कभी न लौटने के लिए
ये जिंदगी भी तो गुज़र रही है तेरे बिना
हाँ कुछ यादें साथ चलती हैं ... जैसे चलता है तारों का
कारवाँ
लम्हों के अनगिनत जुगनू ... जलते बुझते हैं सफ़र में
पर साथ नहीं देते जैसे समय भी नहीं देता साथ
काली सड़क पे झूलते हरे पत्तों के कैनवस
और कैनवस की डालियों पर बैठे अनगिनत रंगीन पंछी
झक्क नीले रंग में रंगा स्तब्ध आकाश
और आकाश पर रुके कायनात के कुछ किरदार
ठिठका पवन और चन्द आवाजों की आवाजें सड़क के दूसरी छोर पर
घने कोहरे में बनता बिगड़ता तेरा बिम्ब इशारा करता है चले आने
का
हालांकि ये सब तिलिस्म है ... फिर भी चलने का मन करता है
यूँ भी उम्र तमाम करने को अकसर जरूरत रहती है किसी बहाने की
रिश्ते कपड़े नहीं जो काम चल जाए
निशान रह जाते हैं रफू के बाद
मिट्टी बंज़र हो जाए तो कंटीले झाड़ उग आते हैं
मरहम लगाने की नौबत से पहले
बहुत कुछ रिस जाता है
हालांकि दवा एक ही है
वक़्त की कच्ची सुतली से जख्म की तुरपाई
जिसे सहेजना होता है तलवार की धार पे चल कर
संभालना होता है कांपते विश्वास को
निकालना होता है शरीर में उतरे पीलिये को
रात के घने अन्धकार से
सूरज की पहली किरण का पनपना आसान नही होता
ज़मीन कितनी भी अच्छी हो
जंगली गुलाब का खिलना भी कई बार
आसान नहीं होता ...
खुद से बात करना ... करते रहना ...
सोच भी पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है ... पर क्या करूं
इंसानी फितरत ही ऐसी है ...
तुम न होतीं तो कोई और होता ... होता ज़रूर किसी का नाम जिंदगी
की किताब में ... स्याही देता है सबको इश्वर ... खाली पन्ने भी देता है जिंदगी में किसी का नाम लिखने को
सोचता हूँ ... तुम न होतीं तो कौन होता ... तुम्हारे जैसा, तुमसे बेहतर, तुमसे अच्छा ... क्या पता न होता ... तुमसे
बेहतर, तुमसे अच्छा
फिर सोचता हूँ तुम्हारे आगे पीछे ही क्यों सोचता हूँ ... तुमसे आगे क्यों नहीं ...
अकसर तेरा अक्स हवा में होता है हर सोच से पहले ...
कितना अच्छा है कभी कभी नशे में डूब जाना, कुछ सोचो और सुबह होते-होते कुछ याद भी न रक्खो ...
उफ़ कितना बे-फजूल सोचता है तू ...