स्वप्न मेरे

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

प्रेम-किस्से ...


यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

शहर की रंग-बिरंगी इमारतों से ये नहीं निकलते
न ही शराबी मद-मस्त आँखों से छलकते हैं
ज़ीने पे चड़ते थके क़दमों की आहट से ये नहीं जागते 
बनावटी चेहरों की तेज रफ़्तार के पीछे छिपी फाइलों के बीच
दम तोड़ देते हैं ये किस्से

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

पनपने को अंकुर प्रेम का  
जितना ज़रूरी है दो पवित्र आँखों का मिलन   
उतनी ही जरूरी है तुम्हारी धूप की चुभन 
जरूरी हैं मेरे सांसों की नमी भी
उसे आकार देने को 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

प्रेम-किस्से आसमान से भी नहीं टपकते
ज़रुरी होता है प्रेम का इंद्र-धनुष बनने से पहले
आसमान से टपकती भीगी बूँदें
ओर तेरे अक्स से निकलती तपिश

जैसे जरूरी है लहरों के ज्वार-भाटा बनने से पहले
अँधेरी रात में तन्हा चाँद का भरपूर गोलाई में होना 
ओर होना ज़मीन के उतने ही करीब
जितना तुम्हारे माथे से मेरे होठ की दूरी 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

हिसाब ... बे-हिसाब यादों का ...


सुबह हुई और भूल गए
यादें सपना नहीं

यादें कपड़ों पे लगी धूल भी नहीं
झाड़ो, झड़ गई

उम्र से बे-हिसाब
जिंदगी के दिन खर्च करना
समुंदर की गीली रेत से सिप्पिएं चुनना   
सब से नज़रें बचा कर
अधूरी इमारतों के साए में मिलना
धुंए के छल्लों में
उम्मीद भरे लम्हे ढूंढना
हाथों में हाथ डाले घंटों बैठे रहना  

जूड़े में टंके बासी फूल जैसे  
क्या फैंक सकोगी यादें

बे-हिसाब बीते दिन
जिंदगी के पेड़ पे लगे पत्ते नहीं 
पतझड़ आया झड़ गए ...

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

माँ ...


सच कहूं तो हर साल २५ सितम्बर को ही ज़हन में तेरे न होने का ख्याल आता है, अन्यथा बाकी दिन यूँ लगता है जैसे तू साथ है ... बोलती, उठती, सोती, डांटती, बात करती, प्यार करती ... और मुझे ही क्यों ... शायद सबके साथ ऐसा होता होगा ... माँ का एहसास जो है ... पिछले छह सालों में जाने कितनी बार कितनी ही बातों, किस्सों और लम्हों में तुझे याद किया, तुझे महसूस किया ... ऐसा ही एक एहसास जिसको जिया है सबने ...

मेज़ पर सारी किताबों को सजा देती थी माँ
चार बजते ही सुबह पढने उठा देती थी माँ  

वक़्त पे खाना, समय पे नींद, पढना खेलना
पेपरों के दिन तो कर्फ्यू सा लगा देती थी माँ

दूध घी पर सबसे पहले नाम होता था मेरा
रोज़ सरसों तेल की मालिश करा देती थी माँ

शोर थोड़ा सा भी वो बर्दाश करती थी नहीं  
घर में अनुशासन सभी को फिर सिखा देती थी माँ  

आज भी है याद वो गुज़रा हुआ बचपन मेरा
पाठ हर लम्हे में फिर मुझको पढ़ा देती थी माँ

खुद पे कम, मेहनत पे माँ की था भरोसा पर मुझे 
रोज आँखों में नए सपने जगा देती थी माँ

सोमवार, 17 सितंबर 2018

कभी तो ...

कभी तो गूंजो कान में
गुज़र जाओ छू के कंधा
गुज़र जाती है क़रीब से जैसे आवारा हवा

उतर आओ हथेली की रेखाओं में
जैसे सर्दी की कुनमुनाती धूप
खिल उठो जैसे खिलता है जंगली गुलाब
पथरीली जमीन पर

झांको छुप छुप के झाड़ी के पीछे से
झाँकता है जैसे चाँद बादल की ओट से

मिल जाओ अचानक नज़रें चुराते
मिलते हैं जाने पहचाने दो अजनबी जैसे

मैं चाहता हूँ तुम्हें ढूँढ निकालना
अतीत के गलियारे से
वर्तमान की राह पर ... 

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

बदलना भविष्य का ...

अपने अपने काल खण्ड की पगडंडियों  पर
सांस लेना जिन्हें मंज़ूर नहीं
ऐसे ही कुछ लैला मजनूँ , हीर रांझा के प्रेम के दस्तावेज़
बदल चुके हैं आज अमर प्रेम ग्रंथों में

कुछ सच जो गुनाह थे कल के काले लम्हों में
रोशन हैं आज शाश्वत सच की तरह

तो क्यों न मिल कर बदल दें “आज”
भविष्य में समझे जाने वाले इतिहास जैसे

गीता भी तो कहती है परिवर्तन संसार का नियम है
बदल दें आज भविष्य की सोच की तरह ...

सुना है भविष्य बदलना अपने हाथ में होता है ...

सोमवार, 3 सितंबर 2018

कर्म का उपदेश कान्हा नाम है ...

सभी की श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई ... कान्हा की कृपा सभी पर बनी रहे ...

इस मुई मुरली को कब विश्राम है
है जहां राधा वहीं घनश्याम है 

बाल यौवन द्वारका के धीश हों 
नन्द लल्ला को कहाँ आराम है 

हाथ तो पहुँचे नहीं छींके तलक
गोप माखन चोर बस बदनाम है 

पूछ कर देखो बिहारी लाल से
है जहां पर प्रेम वो ब्रज-धाम है 

रास हो बस रास हो गोपाल संग
गोपियों का घर कोई ग्राम है 

हे कन्हैया शरण में ले लो मुझ
तू ही मेरा कृष्ण तू ही राम है 

धर्म पथ पर ना कभी विचलित हुए 
कर्म का उपदेश कान्हा नाम है

सोमवार, 27 अगस्त 2018

ख़ुदगर्ज़ आवारा इश्क ... क्या सच में

बिगाड़ देता हूँ ज़ुल्फ़ तेरी
नहीं चाहता हवा के सर कोई इलज़ाम 
रखना चाहता हूँ तुझपे 
बस अपना ही इख़्तियार 
क़बूल है क़बूल है
आवारा-पन का जुर्म सो सो बार मुझे

नहीं चाहता
गुज़रे तुझे छू के बादे-सबा
महक उठे कायनात मदहोश खुशब से
साँसों के आगाज़ के साथ रहना चाहता हूँ 
 तेरी खुशब के इर्द-गिर्द उम्र भर

नहीं चाहता
बदले मौसम का मिज़ाज
टूटे कभी बरसात का लंबा सिलसिला 
ख़त्म होने वाली प्यास तलक
पीना है तुझे कतरा-कतरा

नहीं चाहता ख्वाब का टूटना उम्र भर
अभी अभी खिला है जंगली गुलाब का फूल 
देखना है खेल मुहब्बत का 
मुश्किल से अभी प्रेम ने अंगड़ाई ली है ...

सोमवार, 20 अगस्त 2018

बातें ... खुद से ...


तुम नहीं होती तो कितना कुछ सोच जाता हूँ ... विपरीत बातें भी लगता है एक सी हैं ... ये सच्ची हैं या झूठी ...

चार पैग व्हिस्की के बाद सोचता हूँ 
नशा तो चाय भी दे देती 
बस तुम्हारे नाम से जो पी लेता ...

हिम्मत कर के कई बार झांकता हूँ तुम्हारी आँखों में, फिर सोचते हूँ ... सोचता क्या कह ही देता हूँ ... 

कुछ तो है जो दिखता है तुम्हारी नीली आँख में
वो बेरुखी नहीं तो प्रेम का नाम दे देना ...

फुटपाथ से गुज़रते हुए तुम्हे कुछ बोला था उस दिन, हालांकि तुम ने सुना नहीं पर कर लेतीं तो सच साबित हो जाती मेरी बात ...

दिखाना प्रेम के नाम पर
किसी ज्योतिषी को अपना हाथ
मेरा नाम का पहला अक्षर यूँ ही बता देगा ...

कितना कुछ होता रहता है, कितना कुछ नहीं भी होता ... हाँ ... बहुत कुछ जब नहीं होता, ये तो होता ही रहता है कायनात में ... 

मैंने डाले नहीं, तुमने सींचे नहीं
प्रेम के बीज अपने आप ही उग आते हैं ...

उठती हैं, मिटती हैं, फिर उठती हैं
लहरों की चाहत है पाना
प्रेम खेल रहा है मिटने मिटाने का खेल सदियों से ...

अकसर अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ ... एक तुम हो जो सुनती नहीं ... ये चाँद, ये सूरज, ये हवा भी तो नहीं सुनती ...  

धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज पहलू से मेरे  
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं ...

सोमवार, 13 अगस्त 2018

भीड़ जयचंदों की क्यों फिर देश से जाती नहीं है ...


सभी भारत वासियों को स्वतंत्रता दिवस, १५ अगस्त की हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ ... एक छोटा सा आग्रह इस गीत के माध्यम से:  

हो गए टुकड़े अनेकों चेतना जागी नहीं है
क्या तपोवन में कहीं सिंह गर्जना बाकी नहीं है

था अतिथि देव भव का भाव अपना दिव्य चिंतन
पर सदा लुटते रहे इस बात पर हो घोर मंथन  
चिर विजय की कामना क्यों मन को महकाती नहीं है

संस्कृति के नाम पर कब तक हमें छलते रहेंगे
हम अहिंसा के पुजारी हैं तो क्या पिटते रहेंगे
क्या भरत भूमि अमर वीरों की परिपाटी नहीं है

खंड में बंटती रही माँ भारती लड़ते रहे हम
प्रांत भाषा वर्ण के झगड़ों में बस उलझे रहे हम
राष्ट्र की परिकल्पना क्यों सोच में आती नहीं है

सैनिकों के शौर्य को जब कायरों से तोलते हैं
नाम पर अभिव्यक्ति की हम शत्रु की जय बोलते हैं 
भीड़ जयचंदों की क्यों फिर देश से जाती नहीं है

सोमवार, 6 अगस्त 2018

एहसास ... जिन्दा होने का ...


एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की बातें, जब की खुद का होना भी बे-मानी हो जाता है कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र जाती है खुद को चूंटी काटते काटते ... जिन्दा हूँ तो उसका एहसास क्यों नहीं ... 


उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ 
कि हो सके एहसास खुद के होने का

हालांकि करता हूँ रफू जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है 
कि रोज टपक जाता है ज़िंदगी से 

उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम    
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना उम्र भर  

सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की 

और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...