स्वप्न मेरे

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

वक़्त ज़िंदगी और नैतिकता ...

क्या सही क्या गलत ... खराब घुटनों के साथ रोज़ चलते रहना ज़िंदगी की जद्दोजहद नहीं दर्द है उम्र भर का ... एक ऐसा सफ़र जहाँ मरना होता है रोज़ ज़िंदगी को ... ऐसे में ... सही बताना क्या में सही हूँ ...

फुरसत के सबसे पहले लम्हे में
बासी यादों की पोटली लिए  
तुम भी चली आना टूटी मज़ार के पीछे
सुख दुःख के एहसास से परे
गुज़ार लेंगे कुछ पल सुकून के

की थोड़ा है ज़िंदगी का बोझ  
सुकून के उस एक पल के आगे

कल फिर से ढोना है टूटे कन्धों पर
पत्नी की तार-तार साड़ी का तिरस्कार
माँ की सूखी खांसी की खसक  
पिताजी के सिगरेट का धुंवा
बढ़ते बच्चों की तंदुरुस्ती का खर्च
और अपने लिए ...
साँसों के चलते रहने का ज़रिया  

नैतिकता की बड़ी बड़ी बातों सोचने का 
वक़्त कहाँ देती है ज़िंदगी  

बुधवार, 19 जुलाई 2017

यादें ... बस यादें

यादें यादें यादें ... क्या आना बंद होंगी ... काश की रूठ जाएँ यादें ... पर लगता तो नहीं और साँसों तक तो बिलकुल भी नहीं ... क्यों वक़्त जाया करना ...

मिट्टी की
कई परतों के बावजूद
हलके नहीं होते
कुछ यादों की निशान
हालांकि मूसलाधार बारिश के बाद
साफ़ हो जाता है आसमान

साफ़ हो जाती हैं
गर्द की पीली चादर ओढ़े
हरी हरी मासूम पत्तियां

साफ़ हो जाती हैं
उदास घरों की टीन वाली छतें

ओर ... ये काली सड़क भी
रुकी रहती है जो
तेरे लौटने के इंतज़ार में

इंतज़ार है जो ख़त्म नहीं होता
जंगली गुलाब है 
जो खिलता बंद नहीं करता   

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

आंख-मिचोली ... नींद और यादों की

नींद और यादें ... शायद दुश्मन हैं अनादी काल से ... एक अन्दर तो दूजा बाहर ... पर क्यों ... क्यों नहीं मधुर स्वप्न बन कर उतर आती हैं यादें आँखों में ... जंगली गुलाब भी तो ऐसे ही खिल उठता है सुबह के साथ ...  

सो गए पंछी घर लौटने के बाद  
थका हार दिन, बुझ गया अरब सागर की आगोश में  
गहराती रात की उत्ताल तरंगों के साथ
तेरी यादों का शोर किनारे थप-थपाने लगा
आसमान के पश्चिम छोर पे
टूटते तारे को देखते देखते, तुम उतर जाती हो आँखों में  
(नींद तो अभी दस्तक भी न दे पाई थी)

जागते रहो” की आवाज़ के साथ
घूमती है रात, गली की सुनसान सड़कों पर 
पर नींद है की नहीं आती
तुम जो होती हो 
सुजागी आँखों में अपना कारोबार फैलाए  

रात का क्या, यूं ही गुज़र जाती है

और ठीक उस वक़्त 
जब पूरब वाली पहाड़ी के पीछे लाल धब्बों की दादागिरी
जबरन मुक्त करती है श्रृष्टि को अपने घोंसले से
छुप जाती हो तुम बोझिल पलकों में

उनींदी आँखों में नीद तो उस वक़्त भी नहीं आती

हाँ ... डाली पे लगा जंगली गुलाब 
जाने क्यों मुस्कुराने लगता है उस पल ... 

बुधवार, 5 जुलाई 2017

चार दिन ... क्या सच में ...

तुम ये न समझना की ये कोई उलाहना है ... खुद से की हुई बातें दोहरानी पढ़ती हैं कई बार ... खुद के होने का  एहसास भी तो जरूरी है जीने के लिए ... हवा भर लेना ही तो नहीं ज़िंदगी ... किसी का एहसास न घुला हो तो साँसें, साँसें कहाँ ...

कितनी बार सपनों को हवा दे कर
यूं ही छोड़ दिया तुमने
वक्त की तन्हाई ने उन्हें पनपने नहीं दिया 

दिल से मजबूर मैं
हर बार नए सपने तुम्हारे साथ ही बुनता रहा   
हालांकि जानता था उनका हश्र

सांसों से बेहतर कौन समझेगा दिल की बेबसी
चलने का आमंत्रण नहीं 
खुद का नियंत्रण नहीं
बस चलते रहो ...

चलते रहो पर कब तक

कहते हैं चार दिन का जीवन

जैसे की चार दिन ही हों बस 
उम्र गुज़र जाती है कभी कभी एक दिन जीने में  
ऐसे में चार दिन जीने की मजबूरी
वो भी टूटते सपनों के साथ
नासूर बन जाता है जिनका दंश ...  

रह रह के उठती पीड़ सोने नहीं देती
और सपने देखने की आदत जागने नहीं देती 
उम्र है ... की गुज़रती जाती है इस कशमकश में 

मंगलवार, 27 जून 2017

सुकून ...

सुकून अगर मिल सकता बाज़ार में तो कितना अच्छा होता ... दो किलो ले आता तुम्हारे लिए भी ... काश की पेड़ों पे लगा होता सुकून ... पत्थर मारते भर लेते जेब ... क्या है किसी के पास या सबको है तलाश इसकी ...


नहीं चाहता प्यार करना
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के
अपने आप से किये वादों से परे

उड़ना चाहता हूं उम्मीद के छलावों से इतर
के छू सकूँ आसमां
फिर चाहे न आ सकूँ वापस ज़मीन पर

गिरती पड़ती लहरों के सहारे
जाना चाहता हूं समय की चट्टान के उस पार    
जुड़ती है सीमा नए आकाश की जहाँ    
स्वार्थ से अलग, प्रेम से जुदा
गढ़ सकूँ जहाँ अपने लिए नई दुनिया  
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के 
जंगली गुलाब की यादों से अलग ... 

सोमवार, 19 जून 2017

कैसे कह दूं ...

सुलगते ख्वाब ... कुनमुनाती धूप में लहराता आँचल ... तल की गहराइयों में हिलोरें लेती प्रेम की सरगम ... सतरंगी मौसम के साथ साँसों में घुलती मोंगरे की गंध ... क्या यही सब प्रेम के गहरे रिश्ते की पहचान है ... या इनसे भी कुछ इतर ... कोई जंगली गुलाब ...

झर गई दीवारें
खिड़की दरवाजों के किस्से हवा हुए
मिट्टी मिट्टी आंगन धूल में तब्दील हो गया
पर अभी सूखा नहीं कोने में लगा बबूल
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

अनगिनत यादों के काफिले गुज़र गए इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
जाने कब छिल गयी घर जाने वाली सड़क की बजरी
पर बाकी है, धूल उड़ाती पगडण्डी अभी
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

कुछ मरे हुवे लम्हों की रखवाली में 
मेरे नाम लिखा टूटा पत्थर भी ले रहा है सांसें  
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

कई दिनों बाद इधर से गुज़रते हुए सोच रहा हूँ    
हिसाब कर लूं वक़्त के साथ
जाने कब वक़्त छोड़ जाए, वक़्त का साथ

फिर उस जंगली गुलाब को भी तो साथ लेना है 
खिल रहा है जो मेरी इंतज़ार में ... 

मंगलवार, 6 जून 2017

तितर बितर लम्हे ...

समय की पगडण्डी पे उगी मुसलसल यादें, इक्का दुक्का क़दमों के निशान ... न खत्म होने वाला सफ़र और गुफ्तगू तनहाई से ... ये लम्हे कभी गोखरू, कभी फूल ... तो कभी चुभता हुआ दंश, जंगली गुलाब का ...    

मेहनत की मुंडेर पे पड़ा होता है
कामयाबी का एक टुकड़ा
जरूरी है नसीब का होना
सौ मीटर की इस रेस को जीतने के लिए  
या फिर ...
तेरे जूडे में जंगली गुलाब लगाने के लिए
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चल तो लेता है हर कोई
पर सकून भरी रहगुज़र नहीं मिलती
सफर से लंबा यादों का बोझ
ओर यादों की पोटली में ताज़ा जंगली गुलाब
शायद शुरू हो नया रास्ता
उम्र के आखरी चौराहे से
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घर के दरवाजे पर छोड़ देता हूं दफ्तर का भारीपन  
की काफी है पत्नी के कन्धों पर
गृहस्थी ओर बच्चों के बस्ते का बोझ
xxx
आखरी पढाव पे टिके रहना संभव नहीं होता     
बर्फ की तरह हथेली से पिघल जाती है कामयाबी 
पहली लहर के साथ निकल जाती है समुन्दर की रेत

नसीब फिर जरूरी हो जाता है कोसने के लिए 

सोमवार, 29 मई 2017

यादें ... जंगली गुलाब की ...

धाड़ धाड़ चोट मारते लम्हे ... सर फट भी जाये तो क्या निकलेगा ... यादों का मवाद ... जंगली गुलाब का कीचड़  ... समय की टिकटिक एक दुसरे से जुड़ी क्यों है ... एक पल, यादों के ढेर दूसरे पल को सौंपे, इससे पहले सन्नाटे का पल क्यों नहीं आता ...

फंस के रह गया है ऊँगली से उधड़ा सिरा
जंगली गुलाब के काँटों में 
तुझसे दूर जाने की कोशिश में
खिंच रही है उम्र धागा धागा

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जैसे बची रहती है आंसू की बूँद पलकों के पीछे
खुशी का आखरी लम्हा भी छुपा लिया

आसमानी चुन्नी का अटकना तो याद है ...
जंगली गुलाब की चुभन
रह रह के उठती है उस रोज से

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मुसलसल चलने का दावा
पर कौन चल सका अब तक फुरसत के चार कदम

धूल उड़ाते पाँव
गुबार के पीछे जागता शहर
पेड़ों के इर्द-गिर्द बिखरे यादों के लम्हे

मुसाफिर तो कब के चले गए
खिल रहा है जंगली गुलाब का झाड़
किसी के इन्तार में  

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कुछ मुरीदों के ढेर, मन्नतों के धागे ...
दुआ में उठते हाथों के बीच
मुहब्बत की कब्र से उठता जंगली गुलाब की अगरबत्ती का धुंवा 

इस खुशबू की हद मेरे प्रेम जितनी तो होगी ना ...?

मंगलवार, 23 मई 2017

वजह ... बे-वजह जिंदगी की ...

सम्मोहन, बदहवासी ... पर किस बात की ... जैसे कुछ पकड़ में नहीं आ रहा ... चेहरे ही चेहरे या सारे मेरे चेहरे ...  फिसल रही हो तुम या मैं या जिंदगी या कुछ और ... सतह कहाँ है ...

बेवजह बातें के लिए 
लंबी रात का होना जरूरी नहीं

मौन का संवाद कभी बेवजह नहीं होता
हालांकि रात
कई कई दिन लंबी हो जाती है

उनको देखा
देखते ही रह गया
इसलिए तो प्यार नहीं होता

प्यार की वजह खोजने में
उम्र कम पड़ जाती है
कुछ समय बाद करने से ज्यादा
वजह जानना जरूरी होने लगता है

हालांकि मुसलसल कुछ नहीं होता
जिंदगी के अंधेरे कूँवे में फिसलते लोगों के सिवा     

नज़र नहीं आ रही पर ज़मीन मिलेगी पैरों को
अगर इस कशमकश में बचे रहे

फिसलन के इस लंबे सफर में
जानी पहचानी बदहवास शक्लें देख कर
मुस्कुराने को जी चाहता है

कितना मिलती जुलती हैं मेरी तस्वीर से ये शक्लें  
ऐसा तो नहीं आइना टूट के बिखरा हो  

सोमवार, 8 मई 2017

संघर्ष सपनों का ... या जिंदगी का

पहली सांस का संघर्ष शायद जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है ... हालांकि उसके बाद भी जीवन का हर पल किसी सग्राम से कम नहीं ... साँसों की गिनती से नहीं ख़त्म होती उम्र ... उम्र ख़त्म होती है सपने देखना बंद करने से ... सपनों की खातिर लड़ने की चाह ख़त्म होने से ...  

मौसम बदला पत्ते टूटे
कहते हैं पतझड़ का मौसम है चला जायगा

सुबह हुई सपने टूटे
पर रह जाती हैं यादें पूरी उम्र के लिए
क्या आसान होगा
अगली नींद तक सपनों को पूरा करना
और ... जी भी लेना

हकीकत की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन
खेती लायक नहीं होती 
दूसरों के हाथों से छीनने होते हैं लम्हें   

जागना होता है पूरी रात
सपनों के टूटने के डर से नहीं 
इस डर से ...
की छीन न लिए जाएँ सपने आँखों से

इसलिए जब तक साँसें हैं पूरा करो
सपनों को भरपूर जियो

जिंदगी के सबसे हसीन सपने
कहाँ आते हैं दुबारा ... टूट जाने के बाद