भूल गए जो खून खराबा करते हैं
खून के छींटे अपने पर भी गिरते हैं
दिन में गाली देते हैं जो सूरज को
रात गये वो जुगनू का दम भरते हैं
तेरी राहों में जो फूल बिछाते थे
लोग वो अक्सर मारे मारे फिरते हैं
आग लगा देते हैं दो आंसू पल में
कहने को तो आँखों से ही झरते हैं
उन सड़कों की बात नहीं करता कोई
जिनसे हो कर अक्सर लोग गुज़रते हैं
हाथों को पतवार बना कर निकले जो
सागर में जाने से कब वो डरते हैं
पूजा की थाली है पलकें झुकी हुईं
तुझ पे जाना मुद्दत से हम मरते हैं
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
हाथ में सरसों उगा कर देखिये...
धार के विपरीत जा कर देखिये
जिंदगी को आजमा कर देखिये
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
रात के परदे उठा कर देखिये
आंधियाँ खुद मोड लेंगी रास्ता
एक दीपक तो जला कर देखिये
भीगना जो चाहते हो उम्र भर
प्रीत गागर में नहा कर देखिये
होंसला तो खुद ब खुद आ जायगा
सत्य को संबल बना कर देखिये
जख्म अपने आप ही भर जायंगें
खून के धब्बे मिटा कर देखिये
बाजुओं का दम अगर है तोलना
वक्त से पंजा लड़ा कर देखिये
दर्द मिट्टी का समझ आ जायगा
हाथ में सरसों उगा कर देखिये
जिंदगी को आजमा कर देखिये
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
रात के परदे उठा कर देखिये
आंधियाँ खुद मोड लेंगी रास्ता
एक दीपक तो जला कर देखिये
भीगना जो चाहते हो उम्र भर
प्रीत गागर में नहा कर देखिये
होंसला तो खुद ब खुद आ जायगा
सत्य को संबल बना कर देखिये
जख्म अपने आप ही भर जायंगें
खून के धब्बे मिटा कर देखिये
बाजुओं का दम अगर है तोलना
वक्त से पंजा लड़ा कर देखिये
दर्द मिट्टी का समझ आ जायगा
हाथ में सरसों उगा कर देखिये
गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं ...
दुश्मन जब जब घर के अंदर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बुधवार, 5 अक्तूबर 2011
गोया लुटने की तैयारी ...
मिट्टी का घर मेघ से यारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
बुधवार, 28 सितंबर 2011
दुपट्टा आसमानी शाल नीली ...
गिरे है आसमां से धूप पीली
पसीने से हुयी हर चीज़ गीली
खबर सहरा को दे दो फिर मिली है
हवा के हाथ में माचिस की तीली
जलेगी देर तक तन्हाइयों में
अगरबत्ती की ये लकड़ी है सीली
कोई जैसे इबादत कर रहा है
कहीं गाती है फिर कोयल सुरीली
दिवारों में उतर आई है सीलन
है तेरी याद भी कितनी हठीली
तुझे जब एकटक मैं देखता हूँ
मुझे मिलती हैं दो आँखें पनीली
चली आती हो तुम जैसे हवा में
दुपट्टा आसमानी शाल नीली
पसीने से हुयी हर चीज़ गीली
खबर सहरा को दे दो फिर मिली है
हवा के हाथ में माचिस की तीली
जलेगी देर तक तन्हाइयों में
अगरबत्ती की ये लकड़ी है सीली
कोई जैसे इबादत कर रहा है
कहीं गाती है फिर कोयल सुरीली
दिवारों में उतर आई है सीलन
है तेरी याद भी कितनी हठीली
तुझे जब एकटक मैं देखता हूँ
मुझे मिलती हैं दो आँखें पनीली
चली आती हो तुम जैसे हवा में
दुपट्टा आसमानी शाल नीली
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
नम सी दो आँखें रहती हैं ...
गुरुदेव पंकज जी ने इस गज़ल को खूबसूरत बनाया है ... आशा है आपको पसंद आएगी ...
प्यासी दो साँसें रहती हैं
नम सी दो आँखें रहती हैं
बरसों से अब इस आँगन में
बस उनकी यादें रहती हैं
चुभती हैं काँटों सी फिर वो
दिल में जो बातें रहती हैं
शहर गया है बेटा जबसे
किस्मत में रातें रहती हैं
उनके जाने पर ये जाना
दिल में अब आहें रहती हैं
पत्थर मारा तो जाना वो
शीशे के घर में रहती हैं
पीपल और जिन्नों की बातें
बचपन को थामें रहती हैं
प्यासी दो साँसें रहती हैं
नम सी दो आँखें रहती हैं
बरसों से अब इस आँगन में
बस उनकी यादें रहती हैं
चुभती हैं काँटों सी फिर वो
दिल में जो बातें रहती हैं
शहर गया है बेटा जबसे
किस्मत में रातें रहती हैं
उनके जाने पर ये जाना
दिल में अब आहें रहती हैं
पत्थर मारा तो जाना वो
शीशे के घर में रहती हैं
पीपल और जिन्नों की बातें
बचपन को थामें रहती हैं
मंगलवार, 13 सितंबर 2011
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ ..
कविताओं के दौर से निकल कर ... पेश है आज एक गज़ल ...
उनसे आँखें चार नहीं कर पाता हूँ
मिलने से इंकार नहीं कर पाता हूँ
खून पसीना रोज बहाता हूँ मैं भी
मिट्टी को दीवार नहीं कर पाता हूँ
नाल लगाए बैठा हूँ इन पैरों पर
हाथों को तलवार नहीं कर पाता हूँ
सपने तो अपने भी रंग बिरंगी हैं
फूलों को मैं हार नहीं कर पाता हूँ
अपनों की आवाजें हैं पसमंज़र में
खूनी हैं पर वार नहीं कर पाता हूँ
सात समुन्दर पार किये हैं चुटकी में
बहते आंसूं पार नहीं कर पाता हूँ
कातिब हूँ कातिल भी मैंने देखा है
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ
उनसे आँखें चार नहीं कर पाता हूँ
मिलने से इंकार नहीं कर पाता हूँ
खून पसीना रोज बहाता हूँ मैं भी
मिट्टी को दीवार नहीं कर पाता हूँ
नाल लगाए बैठा हूँ इन पैरों पर
हाथों को तलवार नहीं कर पाता हूँ
सपने तो अपने भी रंग बिरंगी हैं
फूलों को मैं हार नहीं कर पाता हूँ
अपनों की आवाजें हैं पसमंज़र में
खूनी हैं पर वार नहीं कर पाता हूँ
सात समुन्दर पार किये हैं चुटकी में
बहते आंसूं पार नहीं कर पाता हूँ
कातिब हूँ कातिल भी मैंने देखा है
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
स्व ...
मेरी प्रवृति
भागने की नही
पर कृष्ण को देवत्व मिला
सिद्धार्थ को बुद्धत्व मिला
कभी तो मैं भी पा लूँगा
अपना
"स्व"
भागने की नही
पर कृष्ण को देवत्व मिला
सिद्धार्थ को बुद्धत्व मिला
कभी तो मैं भी पा लूँगा
अपना
"स्व"
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
आह्वान ...
कब तक शब्दों को
विप्लव की रचनाओं में उतारोगे
शब्द से रचना
रचना से संग्रह
संग्रह से किताब
किताब से संग्रहालय
आंत्र-जाल
या कोई अखबार
दम घोंटू
जंग खाई अलमारियों में
फर्नेल की बदबू से जूझती
सीलन लगी किताबें
फफूंद लगे शब्द
अब सड़ने लगे हैं
मकड-जाल में फंसे मायनों की
साँस उखड़ने लगी है
इससे पहले की
दीमक शब्दों को चाट जाए
शब्दों से गिर के अर्थ
आत्महत्या कर लें
इन्हें बाहर लाओ
चमकती धूप दिखाओ
युग परिवर्तन की हवा चलाओ
शब्दों को ओज़स्वी आवाज़ में बदल डालो
क्रान्ति का इंधन बना दो
क्या हुवा जो कुछ समय के लिए
काव्य सृजन न हुवा
इतिहास की वीथियों में
संगृहीत शब्दों की आवाजें
गूंजती रहेंगी सदियों तक
विप्लव की रचनाओं में उतारोगे
शब्द से रचना
रचना से संग्रह
संग्रह से किताब
किताब से संग्रहालय
आंत्र-जाल
या कोई अखबार
दम घोंटू
जंग खाई अलमारियों में
फर्नेल की बदबू से जूझती
सीलन लगी किताबें
फफूंद लगे शब्द
अब सड़ने लगे हैं
मकड-जाल में फंसे मायनों की
साँस उखड़ने लगी है
इससे पहले की
दीमक शब्दों को चाट जाए
शब्दों से गिर के अर्थ
आत्महत्या कर लें
इन्हें बाहर लाओ
चमकती धूप दिखाओ
युग परिवर्तन की हवा चलाओ
शब्दों को ओज़स्वी आवाज़ में बदल डालो
क्रान्ति का इंधन बना दो
क्या हुवा जो कुछ समय के लिए
काव्य सृजन न हुवा
इतिहास की वीथियों में
संगृहीत शब्दों की आवाजें
गूंजती रहेंगी सदियों तक
गुरुवार, 18 अगस्त 2011
प्रश्न ...
इतिहास के क्रूर पन्नों पे
समय तो दर्ज़ करेगा
हर गुज़रता लम्हा
मुँह में उगे मुहांसों से लेकर
दिल की गहराइयों में छिपी क्रांति को
खोल के रख देगा निर्विकार आईने की तरह
अनगिनत सवाल रोकेंगे रास्ता
तेरी मेरी
हम सबकी भूमिका पे
जो तटस्थ रहेंगे
या लड़ेंगे
समय तो लिखेगा
उन सब का इतिहास
क्या सामना करोगे इन सवालों का
सृष्टि के रहने तक
युग के बदलने तक
भविष्य में उठने वाले इन प्रश्नों का जवाब
वर्तमान में ही देना होगा
क्या अब भी सोते रहोगे...?
समय तो दर्ज़ करेगा
हर गुज़रता लम्हा
मुँह में उगे मुहांसों से लेकर
दिल की गहराइयों में छिपी क्रांति को
खोल के रख देगा निर्विकार आईने की तरह
अनगिनत सवाल रोकेंगे रास्ता
तेरी मेरी
हम सबकी भूमिका पे
जो तटस्थ रहेंगे
या लड़ेंगे
समय तो लिखेगा
उन सब का इतिहास
क्या सामना करोगे इन सवालों का
सृष्टि के रहने तक
युग के बदलने तक
भविष्य में उठने वाले इन प्रश्नों का जवाब
वर्तमान में ही देना होगा
क्या अब भी सोते रहोगे...?
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