स्वप्न मेरे

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

अधूरा सत्य


साथियो ये मेरी इस साल कि अंतिम रचना है ... २३ दिसंबर से १ जनवरी तक दिल्ली, फरीदाबाद की सर्दी का मज़ा लूटूँगा ... आप सब को नया साल बहुत बहुत मुबारक ...


तुम्हारे कहने भर से क्यों मान लूं
मैं झूठ बोलता हूँ
माना कुछ बातें सच नही होतीं
पर वो झूठ भी तो नहीं होतीं
मेरे बोले बहुत से सत्य
तुमने पूर्णतः सत्य नहीं माने
जबकि तुम्हारा अन्तः-करण यही चाहता है

कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
अधूरे झूठ की तरह

क्या इतिहास बदलने वाले झूठ पूर्णतः झूठ हि माने जाएँगे
क्या सत्य मान कर बोले गये झूठ
झूठ हि कहलाएँगे

क्या अश्वथामा की मौत पर
युधिष्ठर से बुलवाया गया सत्य
सत्य की आड़ में बोला गया झूठ था
या झूठ की दहलीज़ पर खड़े हो कर बोला गया सत्य …
धर्म की स्थापना के लिए बोला गया झूठ
या सत्य की अवमानना को बोला गया सत्य …

क्या ये सत्य नही
प्रकाश के आने पर अंधकार लुप्त हो जाता है

और इस बात को तुम क्या कहोगी
अंधकार बढ़ते बढ़ते प्रकाश को लील लेता है

फिर सत्य क्या है और झूठ क्या
ये जीवन जो माया है
या माया जो जीवन निर्धारित करती है


जैसे कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
ऐसे अधूरे सत्य मैं तुमसे बोलता हूँ
जिन्हे तुम झूठ समझती हो और मुझे ...... झूठा

वैसे तुमने तो आज तक
इस पूर्णतः सत्य को भी सत्य कब माना
जब मैने तुमसे कहा था

जब कभी मैं तुम्हें देखता हूँ
तुम्हारा सादगी भरा
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी में लिपटा रूप
मेरे सामने आ जाता है...

जबकि तुम जानती हो
एक यही सत्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है
और तुम्हारे लिए ...
.....
.....

झूठ-मूठ हि बोला झूठ

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

गुलाबी ख्वाब

रात भर
उनिंदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने
हसीन ख्वाब जोड़े

सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया हूँ वो ख्वाब
तुम्हारे तकिये तले

अब जब कभी
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे दस्तक देगी

तकिये के नीचे से सरक आये मेरे ख्वाब
तुम्हारी आँखों में उतर जाएँगे

तुम हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक हैं मेरे ख्वाब कहीं बिखर न जाएँ

रविवार, 5 दिसंबर 2010

नीला पुलोवर

याद है जाड़े कि वो रात

दूर तक फैला सन्नाटा
ज़मीन तक पहुँचने से पहले
ख़त्म होती लेम्प पोस्ट कि पीली रौशनी

कितना कस के लपेटा था साड़ी का पल्लू

हमेशा कि तरह उस रात भी
तुमसे दस कदम दूरी पर था मैं
फिर अचानक तुम रुकीं और मुड़ के देखा
सूखे पत्ते सी कांप रहीं थी तुम

वो रात शायद अब तक की सबसे ठंडी रात थी
और मेरी जिंदगी की सबसे हसीन रात...

कितना खिल रहा था मेरा नीला पुलोवर तुम्हारे ऊपर
जैसे आसमानी चादर ने अपनी बाहों में समेट लिया हो

वक़्त ठहर गया था मेरे लिए उस रात...
.....
.....

फिर अचानक "शुक्रिया" का संबोधन
और बंद दरवाज़े के पीछे से आती हसीं कि आवाजें
तुम भी तो होठ दबा कर वापस भाग गयीं थीं उस पल

पता है उस पुलोवर में
जो तुमने उस रात पहना था
कुछ बाल धंस गए थे तुम्हारे

मुद्दतों तक उन नर्म रेशमी बालों कि छुवन
तेरी बाँहों कि तरह मेरी गर्दन से लिपटी रहीं

पर आज
जबकि तू मेरे साथ नहीं

(और ऐसा भी नही है कि मैं जानता नही था कि अपना साथ संभव नही)

पता नही क्यों
उन बालों कि चुभन सह नही पाता
दिन भर उन बालों को नोचता हूँ
उन्हें निकालने कि कोशिश में लहू-लुहान होता हूँ
पर रात होते होते
फिर से उग आता है तेरे बालों का जंगल


रोज़ का ये सिलसिला
ख़त्म नही हो पाता
और वो नीला पुलोवर
चाह कर भी छोड़ा नही जाता ...

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम ...

ख़ुदा धरती को अपने नूर से जब जब सजाता है
दिशाएँ गीत गाती हैं गगन ये मुस्कुराता है

ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम
रज़ाई में छुपा सूरज अभी तक कुनमुनाता है

मुनादी हो रही है चाँदनी से रुत बदलने की
गुलाबी शाल ओढ़े आसमाँ पे चाँद आता है

पहाड़ों पर नज़र आती है फिर से रूइ की चादर
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है

फजाओं में महकती है तिरे एहसास की खुशबू
हवा की पालकी में बैठ कर मन गुनगुनाता है

झुकी पलकें खुले गेसू दुपट्टा आसमानी सा
तुझे बाहों के घेरे में लिए मन गीत गाता है

शनिवार, 20 नवंबर 2010

वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ

मुफलिसों के दर्द आंसू सिसकियाँ
बन सकी हैं क्या कभी ये सुर्खियाँ

आम जन तो हैं सदा पिसते रहे
सर्द मौसम हो य चाहे गर्मियाँ

खून कर के वो बरी हो जाएगा
जेब में रख ली हैं उसने कुर्सियाँ

चोर है इन्सां तभी तो ले गयीं
रंग फूलों का उड़ा कर तितलियाँ

आदमी का रंग ऐसा देख कर
पी गयीं तालाब सारी मछलियाँ

तुम अंधेरों से न डर जाओ कहीं
जेब में रख ली हैं मैंने बिजलियाँ

थाल पूजा का लिए जब आयगी
चाँद को आने न देंगी बदलियाँ

कह रही हैं हाले दिल अपना सनम
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ

रविवार, 14 नवंबर 2010

प्याज बन कर रह गया है आदमी

मौन स्वर है सुप्त हर अंतःकरण
सत्य का होता रहा प्रतिदिन हरण

रक्त के संबंध झूठे हो गए
काल का बदला हुवा है व्याकरण

खेल सत्ता का है उनके बीच में
कुर्सियां तो हैं महज़ हस्तांतरण

घर तेरे अब खुल गए हैं हर गली
हे प्रभू डालो कभी अपने चरण

आपके बच्चे वही अपनाएंगे
आप का जैसा रहेगा आचरण

प्याज बन कर रह गया है आदमी
आवरण ही आवरण बस आवरण

रविवार, 7 नवंबर 2010

ग़ज़ल ...

पंकज जी के गुरुकुल में तरही मुशायरा नयी बुलंदियों को छू रहा है ... प्रस्तुतत है मेरी भी ग़ज़ल जो इस तरही में शामिल थी ... आशा है आपको पसंद आएगी ....

महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी
तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी

सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी

है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा
दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी

महबूब तेरे अक्स में है हीर लैला सोहनी
मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी

इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला
जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी

तुम आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में
ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी

नज़रें झुकाए तू खड़ी है थाल पूजा का लिए
तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी

ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया
काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

कहने को दिल वाले हैं ...

गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किए हैं .... ग़ज़ल बहर में आ गयी है अब ... आशा है आपको पसंद आएगी .....

छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं

जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं

अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं

खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं

जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं

न्‍योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं

कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

चार कांधों की जरूरत है जरा उठना ...

प्रस्तुत है आज एक ग़ज़ल गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से सजी ....


छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना

मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना

कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना

याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना

झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना

आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना

लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अच्छा ... आप भी न ...

अच्छा ... आप भी न ...
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...

और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...

पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए

फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें

सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?

अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?

वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?