स्वप्न मेरे

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

प्रेम की ये कैसी इब्तदा

कभी कभी बातों ही बातों में मन के आस पास उमड़ते घुमड़ते अनजाने कुछ शब्द, कोई कल्पना या रचना का रूप ले लेते हैं ..... प्रस्तुत है ऐसी ही एक रचना जो अनजाने ही उग आयी मन के आँगन में ..........


खूब है मासूम सी अदा
बोलती आँखें यदा कदा

होठ से तेरे जो निकले
गीत मैं गाता रहूँ सदा

स्पर्श से महका जो तेरे
खिल रहा वो फूल सर्वदा

ग्वाल में राधा तू मेरी
बांसुरी बजती यदा यदा

हाथ में सरसों खिली है
प्रेम की ये कैसी इब्तदा

मेघ धरती अगन वायु
कायनात तेरी सम्पदा

हूँ पथिक विश्राम कैसा
आपसे लेता हूँ मैं विदा

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

तुम तक पहुँचने से पहले

१)

तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
घायल शब्दों की झिर्री से
बिखर गयी चाहत
बह गए एहसास
कुछ अधूरे स्वप्न
मिलन की प्यास

उफ़ ......... इन घायल शब्दों को
बैसाखी भी तो नहीं मिलती

२)

तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
वो देखो ...........
रेत के पीली समुन्दर में
शब्दों का जंगल उग आया है
शोर से महकते जंगल को
अभिव्यक्त हो जाने की प्यास है
तू कभी तो इस रास्ते से गुजरेगा
बस तेरी ही उसको तलाश है

सुना है गुज़रे मुसाफिर
लौट कर ज़रूर आते हैं

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

शब्दों के मायने .....

शब्दों का सिलसिला आगे बढाता हूँ .............शब्दों को शब्दों के माध्यम से कुछ अर्थ देने की कोशिश के साथ ........

शब्द शब्द शब्द
हवा में शब्द, फिजां में शब्द
ये भी शब्द, वो भी शब्द
शब्द भी शब्द, निःशब्द भी शब्द
तू भी शब्द, मैं भी शब्द

आ मायने बन कर
इस कायनात में बिखर जाएँ

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

शब्दों का सिलसिला ..........

अमेरिका के लम्बे प्रवास के बाद दुबई की वापसी ........ घर आने का आनंद ........ शब्दों के माध्यम से कुछ और शब्दों को सिमेटने की कोशिश .......

१)

"प्यार"
गहरा अर्थ लिए
अर्थ हीन शब्द
दीमक की तरह चाट गया
मेरे होने का अर्थ ......

२)

"मौन"
शब्द होते हुवे निःशब्द
अर्थ को अभिव्यक्त करता
निःशब्द
शब्द ......

३)

"शब्द"
होठ से निकले
तो शब्द
आँख से निकले
तो अर्थ ......

शनिवार, 26 सितंबर 2009

शब्द .....

दुबई से कोसों मील दूर अमेरिका के एक छोटे से शहर अल पेसो की छिटकी हुए धुप में होटल के कमरे में बैठे कुछ शब्द मन के आँगन में घुमड़ने लगे हैं ..... कोशिश कर के कागज़ के पन्नों में उतार दिया है उन शब्दों को ........ अब आपके सामने अभिव्यक्त कर रहा हूँ ..........

१)
हवा में अटके कुछ शब्द
बोलने को छटपटाते हैं
अभिव्यक्ति की सांकल
हौले से खटखटाते हैं
अर्थ के दरवाज़े से
खाली हाथ लौट आते हैं
व्यक्त होने से पहले
दिवंगत हो जाते हैं ......

२)
कुछ कह भि लिया
कुछ सुन भि लिया
गूंगे शब्दों की भाषा को
अभिव्यक्ति के मौन ने
चुन भि लिया ........

३)
हवा में तैरते कुछ शब्द
अर्थ की निरंतर तलाश में
तेरे होठ छू कर
अभिव्यक्त हो गए ........

बुधवार, 16 सितंबर 2009

अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा

गीत कोई विरह का गाया न जाएगा
इन आंसुओं का भार उठाया न जाएगा

गोलियों से बात होती है जहां दिन भर
मैं तो क्या मेरा वहां साया न जाएगा

फट गयी कमीज तो भी पहन लेंगे हम
अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा

सो रहे जो लोग वो तो जाग जायेंगे
जागे हुवे सोतों को जगाया न जाएगा

बेरुखी से आज हमको देख न साकी
उठ गया तो लौट कर आया न जाएगा

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें

ये प्रीत की है मेहँदी फिर हाथ में लगा लें
रूठे हुवे हैं सजाना चल प्यार से मना लें

इस दर्द से सिसकती खामोश ज़िंदगी को
लम्हा जो छू के आया आ जिंदगी बना लें

शबनम की बूँद है तो ये सूखती नही क्यों
ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें

इस गीत की उदासी कहती है इक कहानी
महफ़िल में है अंधेरा चल रोशनी जला लें

तुम अंजूरी में भर के खुशियाँ समेट लेना
हम दस्ते-नाज़ुकी से कंकड़ सभी उठा लें

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

वतन से वापसी, अर्श जी, अनिल जी, राजीव रंजन जी से मुलाकात की हसीन यादें समेटे, ताऊ श्री के रहस्य को जानने की कोशिश के साथ, गुरुवर पंकज जी, गौतम जी, दर्पण जी, निर्मला जी, मुफ़लिस जी से हुई बातचीत को मन में संजोए पेश है ये ग़ज़ल. आपको पसंद आए तो सार्थक है.

सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए

कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये

बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

छोड़ कर मैं आ गया कुछ बोल तेरे द्वार पर

शनिवार से एक हफ्ते की छुट्टी ............ ब्लोगिंग से दूर, दुबई की जलती गर्मी से भी दूर, वतन की भीनी भीनी खुशबू का आनंद लेते. तब तक के लिए ये ग़ज़ल आप सब की नज़र ..............

आरजू वादे, वफ़ा, जुस्तजू और प्यार पर
कितने अफ़साने बने हैं इक निगाहें यार पर

पार कर लेगा तमाम ज़िन्दगी की अड़चनें
रात दिन चलता रहा जो चाकुओं कि धार पर

मोर फिर नाचा नहीं न प्यास धरती की बुझी
झूम कर बादल मगर इतरा रहा बौछार पर

जा बसा बेटा शहर तो कमर फिर झुकने लगी
आ गया फिर बोझ पूरे घर का इस दीवार पर

गीत बन कर महक उठेंगे जो कि तुमने स्वर दिये
छोड़ कर मैं आ गया कुछ बोल तेरे द्वार पर

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

यादों की नागफनी

उग आये हैं
समय की नागफनी पर
याद के कांटे
नोचने के अनवरत प्रयास में
चुभता हैं दंश
बीती बातों का
पूनम की रातों का
गुज़रे मधुमास का
अनबुझी प्यास का
लहुलुहान हाथों के
रिस्ते खून के साथ
बहा देना चाहता हूँ
तेरी यादों का जंगल
हमेशा हमेशा के लिए

पर ये नागफनी
सूख कर गिरती भी तो नहीं