स्वप्न मेरे

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

लुट गए हैं रंग सारी कायनात के

खो गयी है आज क्यों सूरज की धूप
लुट गए हैं रंग सारी कायनात के

जुगनुओं से दोस्ती अब हो गयी अपनी
साथ मुझ को ले चलो ऐ राही रात के

तू छावं भी है धूप भी बरसात भी
रंग हैं कितने तुम्हारी शख्सियात के

छत तेरी आँगन मेरा, रोटी तेरी चूल्हा मेरा
सिलसिले खो गए वो मुलाक़ात के

मेरी तस्वीर मैं क्यों ज़िन्दगी के रंग भरे
झूठे फ़साने बन गए छोटी सी बात के

काँटे भी चुभे फूल का मज़ा भि लिया
दर्द लिए बैठे थे हम तेरी याद के

कुछ नए तारे खिले हैं आसमान पर
जी उठे लम्हे नए ज़ज्बात के

रास्तों ने रख लिया उनका हिसाब
जुल्म मैं सहता रहा ता-उम्र आप के

बाद-ऐ-मुद्दत फूल खिले हैं यहाँ
वो हिन्दू मुसलमान हैं या और ज़ात के

इक दिन मैं तुझको आईना दिखला दूँगा
तोड़ कर दीवारों दर इस हवालात के

लहू तो बस लाल रंग का हि गिरेगा
पत्थर संभालो दोस्तों तुम अपने हाथ के

है सोचने पर भी यहाँ पहरा लगा हुआ
पंछी उड़ाते रह गया मैं ख़यालात के

फ़िर नए इक हादसे का इंतज़ार
पन्ने पलटते रह गया अख़बार के

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

अन्तिम सफर तो सब करते

आ लौट चलें बचपन में
क्या रख्खा जीवन में

दो सांसों का खेल है वरना
पञ्च तत्त्व इस तन में

लोरी कंचे लट्टू गुड़िया
कौन धड़कता मन में

धीरे धीरे रात का आँचल
उतर गया आँगन में

तेरे बोल घड़ी की टिक टिक
धड़कन धड़कन में

बरखा तो आई फ़िर भी
क्यों प्यासे सावन में

रोयेंगे चुपके चुपके
ज़ख्म रिसेंगे तन में

यूँ तो सब संगी साथी
कौन बसा जीवन में

तेरा मेरा सबका जीवन
सांसों के बंधन में

वो तो मौत झटक के आया
मरा तेरे आँगन में

मेरे सपने चुभेंगे तुमको
खेलो न मधुबन में

अन्तिम सफर तो सब करते
मिट्टी या चंदन में

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

चंद टुकड़े कांच के

लूटने वाले को मेरे घर से क्या मिल पाएगा
चंद टुकड़े कांच के और सिसकता दिल पाएगा

इक फ़ूल का इज़हार था इकरार या इन्कार था
बंद हैं अब कागजों में फूल क्या खिल पाएगा

गाँव की पगडंडियों को छोड़ कर जो आ गया
शहर की तन्हाईयो में ख़ुद को शामिल पाएगा

ओस की एक बूँद ने प्यासे के होठों को छुआ
देखना अब जुस्तुजू को होंसला मिल जाएगा

जिंदगी की कशमकश का जहर जो पीता रहा
होंसले की इन्तहा को शिव के काबिल पाएगा

अपनी कहानी

आज भी है याद मुझ को पहली मुलाकात
पलंग पर चादर बिठाते कांपते तेरे हाथ
खिलखिलाते होठ और गालों का तेरे तिल
ढूँढता ही रह गया उस दिन मैं अपना दिल
उठे उठे दाँत जैसे चाहते थे बोलना
शायद कोई राज जैसे चाहते थे खोलना

बोलना कुछ भी नही खामोश बैठना
ये करेंगे वो करेंगे घंटों सोचना
पलकें झुका बिंदी लगा सादगी सा रूपा
घर की छत पर सेकना सर्दियों की धूप
लाल साड़ी में सजी थाल पूजा का लिए
कनखियों से देखना आरती करते हुवे

कभी तो याद आते हैं सदाबहार के फूल
गर्मियों की शामें और उड़ती हुई धूल
हाथ में चप्पल उठाए, कोवलम की रेत पर
या कभी ऊटी के रस्ते चाय के हरे खेत पर
तिरुपति में कृष्ण से पहला साक्षात्कार
सामने आ जाता है लम्हा वो बार बार

गली के नुक्कड़ पे खाना गर्म कचोरी
बेसुरे सुर मैं सुनाना बच्चों को लोरी
बरसात के मौसम में फ़िर छत पे नहाना
कपड़े न बदलना कमरे मैं घुस आना
गर्मियों मैं अक्सर बिजली चले जाना
रात रात बैठ कर गाने नए गाना

रूई जैसे किक्की के गाल लाल लाल
रिड्क कर चलती हुई निक्की कि मस्त चाल
अक्सर किक्की को डांटते ही जाना बार बार
पड़ने की, कम खाने की लगाना फिर गुहार
शाम को हर रोज तेरी माँ के घर जाना
पानी भरना, घूमना फ़िर लौट कर आना

गोदी मैं ले कर बैठना किक्की को रात रात
क्या कहूँ मुझ को बहुत आते हैं वो दिन याद
मुझ को तो अब तक गुदगुदाता है हँसी वो पल
क्या तुझे भी याद है बीता हुआ कल ?
मुझ को तो अब तक याद है हर लम्हा ज़ुबानी
ये किक्की निक्की तेरी मेरी अपनी कहानी

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

रौशनी का लाल गोला खो गया है सहर से

बच गए थे चंद लम्हे ज़िंदग़ी के कहर से
साँस अब लेने लगे हैं वो तुम्हारे हुनर से

लोग कहते हैं तुम्हारी बात से झड़ते हैं फूल
रीता हुआ आँगन हूँ मैं गुज़रो कभी तो इधर से

बारिशों का कारवाँ रुकता नही है आँख से
दर्द का बादल कोई गुज़रा है मेरे शहर से

समय की पगडंडियों मैं स्वप्न बिखरे हैं मेरे
पाँव में कंकड़ चुभेंगे तुम चलोगे जिधर से

तमाम उम्र तुम महसूस करोगे मेरे अहसास को
तुम तो बस इक बीज हो मेरे उगाये शजर से

इक जमाना हो गया दीपक जलाये बैठा हूँ
कभी तो गुज़रोगे तुम मेरी राहे गुज़र से

तमाम उम्र तेरी आँख में बैठा रहूँगा
ख़्वाब देखोगे तुम सिर्फ़ मेरी नज़र से

जुगनुओं की मांग सारे शहर से है आ रही
क्या रौशनी का लाल गोला खो गया है सहर से?

सोमवार, 29 सितंबर 2008

दर्द जब कागज़ पर उतर आएगा

दर्द जब कागज़ पर उतर आएगा
चेहरा तेरा लफ्जों में नज़र आएगा

अपने हाथों की लकीरों में न छुपाना मुझे
हाथ छूते हि तेरा चेहरा निखर आएगा

बदल गया है मौसम् महक सी आने लगी
मुझे लगता है जैसे तेरा शहर आएगा

तेरे पहलू में बैठूं तुझसे कोई बात करुँ
एक लम्हा ही सही पर ज़रूर आएगा

एक मुद्दत से आँखे बंद किए बैठा हूँ
कभी तो ख्वाब में मेरा हज़ूर आएगा

ख्वाब मेरे

वक़्त के दामन में कितने
ख्वाब बिखरे हैं मेरे
साँस लेते हैं वो लम्हे
तोड़ न देना उन्हें

दूर तक आएंगे मेरी
याद के तारे नज़र
जब चलो तुम आसमां पर
देख तो लेना उन्हें

शनिवार, 13 सितंबर 2008

धुँधला गया है चाँद

चोह्दवीं की रात है और घुप्प अंधेरा
कायनात में मेरी बदला गया है चाँद

तुम अचानक आ गयी हो रात के दूजे पहर
देख कर चेहरा तेरा पगला गया है चाँद

तेरे माथे पर सिमट आया है जीवन
सुर्ख़ पा वन चांदनी पिघला गया है चाँद

पलकें झुकाए थाल पूजा का उठाये
रूप सादगी भरा नहला गया है चाँद

देर तक करता था मैं दादी से बातें
उम्र का है असर या धुँधला गया है चाँद

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

अच्छा लगेगा

शहर दरिया हो या हो सहरा पहाड़
साथ दो तुम उम्र भर अच्छा लगेगा

थक चुका हूँ जिन्दगी की धूप में
छावं में तेरी मगर अच्छा लगेगा

सर्दियों का वक़्त और कुल्लू का मौसम
हो गयी है दोपहर अच्छा लगेगा

रेत का दरिया और हम तुम साथ हैं
ख़त्म न हो ये सफर अच्छा लगेगा

चाँद में धब्बे सहे नही जाते
आप जेसे भी हो पर अच्छा लगेगा

दिल ही रखने को सही पर बोल दो
याद आया दिगम्बर अच्छा लगेगा

रात होने को है और तन्हा हूँ में
लौट आओ मेरे घर अच्छा लगेगा

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

कुछ तो है

कुछ तो है इस मन में जो बोला नही जाता
राज् कुछ गहरा है जो खोला नही जाता

में तो ऐसा ही हूँ जो अपना सको
हर किसी के साथ में तोला नही जाता

कोन से लम्हे में मेरा दिल जला था
बुझ गयी है आग पर शोला नही जाता