आसान तो नहीं था
मगर वो बदल गया. इक शख्स था गुनाह में शामिल संभल गया. कुछ ख़्वाब थे जो
दिन में हकीक़त न बन सके, उस रात उँगलियों
से मसल कर निकल गया. पत्थर में आ गई
थी फ़सादी की आत्मा, साबुत सरों को
देख के फिर से मचल गया. जिसने हमें उमीद के लश्कर दिखाए थे, वो ज़िन्दगी के स्वप्न दिखा कर मसल गया. सूरज थका-थका था उसे नींद आ गई, साग़र की बाज़ुओं में वो झट से पिघल गया. जब इस बगल था इश्क़
तो पैसा था उस बगल, मैं इस बगल गया ये
सनम उस बगल गया.