स्वप्न मेरे: शजर
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मंगलवार, 12 जुलाई 2016

गुज़र गए जो पल वो लौट कर नहीं मिलते ...

हजार ढूंढ लो वो उम्र भर नहीं मिलते
उजड़ गए जो आँधियों में घर नहीं मिलते

नसीब हो तो उम्र भर का साथ मिलता है
किसी के ढूँढने से हम-सफ़र नहीं मिलते

जो दुःख में सुख में साथ थे गले लगाने को
यहाँ वहां कहीं भी वो शजर नहीं मिलते

उड़ान होंसले से भर सको तो उड़ जाना
घरों में बंद पंछियों को पर नहीं मिलते

जो जी सको तो जी लो जिंदगी का हर लम्हा
गुज़र गए जो पल वो लौट कर नहीं मिलते

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

मेरी नज़रों में ऐसे ही कभी वो बे-खबर आता ...

मुझे इक शख्स अपना सा है शीशे में नज़र आता
जो आना चाहता था घर मगर किस मुंह से घर आता

इधर की छोड़ दी, पकड़ी नहीं परदेस की मिट्टी
कहो कैसे अँधेरा चीर कर ऊंचा शजर आता

वो जिसकी याद में आंसू ढलक आते हैं चुपके से
मेरी नज़रों में ऐसे ही कभी वो बे-खबर आता

सुनाता वो कभी अपनी, सुनाते हम कभी अपनी
कभी कोई मुसाफिर बन के अपना हम-सफ़र आता

उसे मिट्टी की चाहत खींच लाई थी वतन अपने
नहीं तो छोड़ कर बच्चों को क्या कोई इधर आता

जिसे परदेस की मिट्टी हवा पानी ने सींचा था
वो अपना है मगर क्यों छोड़ के मेरे शहर आता
     

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

कोई भी शेर मुकम्मल बहर नहीं आता ...

उदास रात का मंजर अगर नहीं आता
कभी में लौट के फिर अपने घर नहीं आता

में भूल जाता ये बस्ती, गली ये घर आँगन
कभी जो राह में बूढा शजर नहीं आता

जो जान पाता तेरी ज़ुल्फ़ है घना जंगल
कभी भी रात बिताने इधर नहीं आता

समझ गया था तेरी खौफनाक चालों को
में इसलिए भी कभी बे-खबर नहीं आता

बदल के रुख यूँ बदल दी चराग की किस्मत
हवा के सामने वर्ना नज़र नहीं आता

में अपने शेर भी लिख लिख के काट देता हूँ
कोई भी शेर मुकम्मल बहर नहीं आता

उसूल अपने बना कर जो हम निकल पड़ते
हमारी सोच पे उनका असर नहीं आता