स्वप्न मेरे: भगवान
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बुधवार, 17 जुलाई 2013

माँ

रात में दादी के पांव दबाती   
पिता के कमजोर कंधे मजबूती से थामे 
घर की चरमराती दिवार हाथों पे उठाए  
पैरों में चक्री लगाए हर शै में नज़र आती 
थी तो माँ पर फिर भी नहीं थी   

महीने की पहली तारीख 
सिगरेट के पैसे निकालने का बाद 
बची पगार माँ के हाथ में थमाने के अलावा 
पिताजी बस खेलते थे ताश 
(हालांकि ये शिकायत नहीं, 
और माँ को तो बिलकुल नहीं) 
कभी नहीं देखा उन्होंने खर्चे का हिसाब 
मेरी बिमारी से लेकर मुन्नी की किताबों का जवाब 
सब कुछ अपने सर पे रक्खे 
थी तो माँ पर फिर भी नहीं थी 

हालांकि होता था पापा का नाम  
बिरादरी में लगने वाले हर तमगे के पीछे 
मेरे नम्बरों से लेकर मुन्नी के मधुर व्यवहार तक 
कई बार देखा है पापा को अपनी पीठ थपथपाते 
पर सच कहूं तो ... होती थी बस माँ 
जो हो के भी हर जगह, नहीं होती थी कहीं 

सुना है बड़े बूढों से, ज्ञानी संतों से 

भगवान हो कर भी हर जगह ... कहीं नहीं होते