रात में दादी के पांव दबाती
पिता के कमजोर कंधे मजबूती
से थामे
घर की चरमराती दिवार हाथों
पे उठाए
पैरों में चक्री लगाए हर शै
में नज़र आती
थी तो माँ पर फिर भी नहीं
थी
महीने की पहली तारीख
सिगरेट के पैसे निकालने का
बाद
बची पगार माँ के हाथ में
थमाने के अलावा
पिताजी बस खेलते थे ताश
(हालांकि ये शिकायत नहीं,
और माँ को तो बिलकुल नहीं)
कभी नहीं देखा उन्होंने
खर्चे का हिसाब
मेरी बिमारी से लेकर मुन्नी
की किताबों का जवाब
सब कुछ अपने सर पे रक्खे
थी तो माँ पर फिर भी नहीं
थी
हालांकि होता था पापा का
नाम
बिरादरी में लगने वाले हर
तमगे के पीछे
मेरे नम्बरों से लेकर मुन्नी
के मधुर व्यवहार तक
कई बार देखा है पापा को
अपनी पीठ थपथपाते
पर सच कहूं तो ... होती थी बस
माँ
जो हो के भी हर जगह, नहीं
होती थी कहीं
सुना है बड़े बूढों से,
ज्ञानी संतों से
भगवान हो कर भी हर जगह ... कहीं
नहीं होते